शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

रे हैवान---



(दामिनी को समर्पित)

क्या तू मां की कोख से
जनम नहीं लिया..
या कि
तू नहीं जुड़ा था
अपनी मां के
गर्भनाल से
जिससे  रिस रिस कर
भर गया जहर तुझमें...

रे हैवान
क्या तेरी मां ने नहीं
पिलाया था दूध
तुझे अपनी छाती  का...
या कि तेरी मां ने
नहीं सही थी
प्रसव की असाह्य पीड़ा...

रे हैवान
निश्चित ही तुझे
किसी मां की कोख ने
नहीं जना होगा..
तभी तो तू
नहीं जान सका
कि आखिर
हर औरत में एक मां होती है...

रे हैवान
रे हैवान
रे हैवान


शनिवार, 15 दिसंबर 2012

तोहमत


1
तोहमत लगाने का जहां में चलन है साथी,
किसी से मत कहना कि तुम पाक दामन हो।।
2
जमाने की निगाहों से कभी खुद को न देखो साथी,
खुदा ने सबको इक रूह का चश्मा दिया है।
3
वो फितरतन फरेबी हैं, तुम परेशां क्यूं हो साथी,
बुरे को इक दिन बुरा मान जाएगें लोग।

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

दानदाता का नाम..

संगमरमर के सीने पर
छेनी से
उकेरा  जा रहा था
दानदाता  का नाम
कथित ईश्वर के घर
लगेगा आदमी का
नाम.....

उस दिन
नाली की ढक्कन पर भी
उकेरा जा रहा था
दानदाता का नाम..


शनिवार, 17 नवंबर 2012

मासूम


1
उनको इस बात का जैसे कोई इल्म न हो।
यूं जा रहे हैं जैसे दिल तोड़ना कोई जुल्म न हो।।
2
उसने फितरत ही कुछ ऐसी पाई है।
बहम, उनसे से ही सारी खुदाई है।।
3
जब्त करना भी जरूरी है जिंदगी में,
कि गैरों को जख्म दिखाए नहीं जाते।
सोहबत से ही कोई अपना नहीं होता,
अपनों से कोई बात छुपाई नहीं जाते।।


रविवार, 11 नवंबर 2012

साथी के बोल बच्चन...


तिस्नगी है साथी तो दरिया का रूख कर।
समुन्द्र की फितरत नहीं होती, प्यास को बुझाना।।

यूं तो अमीरों से सोहबत है तुम्हारी साथी।
दौरे गर्दिश में गरीब दोस्त को भी आजमाना।।

जां देकर भी जो कहीं जिक्र न करे साथी।
दोस्ती का यह सलीका भूल गया है जमाना।।

रविवार, 4 नवंबर 2012

रैली रेलमपेल -(क्षणिकाएं-साथी की कलम से)



1
रैली में आज चैनलों ने अजब घालमेल कर दिया।
एक साथ लाइव कर,
कांग्रेस-जदयू में तालमेल कर दिया।
2
रैली में सोनीया में कहा देश हित में एफडीआई लाया।
जनब हमारा कुनबा भी देश का ही नागरिक है,
इसीलिए स्वीस बैंक में देश का पैसा धर आया।।
3
रैली में राहूल ने कहा देश को बदलाव की जरूरत है।
जनाब, घोटालों की सरकार, बदलाव की ही तो सूरत है।।





बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

रावण जिंदा रह गया!


पुतले तो जल गए, रावण जिंदा रह गया।
देख कर हाल आदमी का, राम शर्मिंदा रह गया।।

सब कुछ सफेद देख, धोखा मत खाना साथी।
बाहर से चकाचक, अंदर से गंदा रह गया।।

फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा ना कर साथी।
अब तो दुर्गा से भंरूये भी दुआ मांगते, धंधा मंदा रह गया।

जो दिखता है सो बिकता है, पूजा, पंडाल, यज्ञ, हवन।
बेलज्जों की कमाई का साथी धंधा, चंदा रह गया।

दीन, धर्म, ईमान का चोखा है व्यापार।
सौदागरों के हाथों का साथी, औजार निंदा रह गया।।

नया दौर का नया चलन है, देखो आंख उघार।
रावण ही पुतला जला कर कहता, अब तो यह धंधा रह गया।।

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

दो नंबरी औरत..


अपनी पहचान पाने
देहरी से बाहर 
जब उसने कदम रखा
कदम दर कदम 
बढ़ी मंजिल की ओर
हौसला भी बढ़ा,

पर समाज ने दे दी
नई पहचान
दो नंबरी.... 
शायद औरत होने की यह सजा थी 
या  
देहरी के बाहर कदम रखने की...

यही वह सोंच रही है गुमशुम..


शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

बेजुबां बच्चे...और उनकी कविता



इस सरकारी भवन के दरवाजे पर खड़ा होते ही अति-उत्साह के साथ आकर एक बच्चे ने ताला खोला और झट से हाथ मिलाया। पर यह क्या? वह ईशारे से चलने के लिए कह रहा था। ओह! यह बच्चा मूक-बधिर है। उसके साथ ही कई मूक बधिर बच्चे एक कमरे में बैठ कर पढ़ रहे थे। यह शिक्षा विभाग का कार्यालय था। बभनबीघा गांव में स्थित इस बीआरसी भवन में इसी तरह के बच्चों को पढ़ना, लिखना और समझने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।
यहां अति उत्साहित बच्चों ने ईशारों को समझ अपना नाम, पता सब कुछ कॉपी पर लिखने लगा। वहीं प्रशिक्षक श्रणव ने बताया कि इनकी सीखने की क्षमता बहुत प्रबल होती है और यहां अभी डेढ़ माह के लिए 35 बच्चे आवासीय रहकर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे है।
बिहार शिक्षा परियोजना के तहत चल रहे इस कैंप में उन बच्चों का भविष्य संबर रहा है जिन्हें यदि यहां यह प्रशिक्षण नहीं मिलता तो जीवन की इस रेस में रेंगते नजर आते...



इन बेजुबां बच्चों को कविता के माध्यम से मैंने शब्द दी है...

जीवन तो दिया मुझे भी
पर नहीं दिया सुनने
और बोलने का हक।
यानि कि
नहीं दिया जीने का अधिकार,
फिर भी मैं तुमसे नाराज कहां हूं!
जीवन दिया ,
तो जीना ही होगा।
और जीना है,
तो जीतना ही होगा....
शायद इसी जीत में
तुम अपनी जीत देखेगो
मेरे भगवान...


सोमवार, 4 जून 2012

सवाल उठाती कविता ....






















सवाल उठाती कविता
बचपन की तरह होती है
मासूम और निश्छल।

वह बोलती-बतियाती है,
सबसे,
बेझिझक,
उसे पता नहीं होता
विभेद
राजा और रंक का..

पर उसके सवाल
कभी कभी
निरूत्तर कर देतें हैं
तथाकथित बौद्धिकों को भी...


शनिवार, 26 मई 2012

देवता के होने पर सवाल उठाता राहू-केतू


कई बार जिंदगी को जीते हुए खामोशी से बिष पीना पड़ता है, कहीं कोई धन का तो कहीं कोई विद्वता का विष वमन कर देता है। मन में एक टीस सी उठती है और फिर कलम से कविता निकल पड़ती है। कहीं कहीं देवता साबित करने के लिए लोग क्या क्या नहीं करते, अपनी बुराईओं को भूल आप पर सवाल खड़े करते है, मैं आज देवता के होने पर ही सवाल खड़ा कर रहा हूं. आप प्रतिक्रिया दे, थोड़ी देर रूक कर पढ़े.... फिर कुछ कहते जाए...


अमृत बंटते समय
मैं भी खड़ा हो जाता
देवाताओं की पांत में
पर मैं राहू की तरह साहसी नहीं था...

पर आज भी राहू-केतू
साहस से
शापित होकर भी
सवाल खड़े किए हुए हैं
देवताओं के देवता होने पर...

सवाल
जो उठता है
देवताओं के अमरत्व पर
उनके छल पर...

भले ही नहीं सुनो
पर पूछोगे तो कभी...

"कि" इस नक्कारखाने में
तूती की यह आवाज कहां से आ रही है...

रविवार, 20 मई 2012

संगमरमर का आदमी



तुम तो कहते थे अमीरे शहर जन्नत होती है।
मैंने तो यहां संगेमरमर का आदमी देखा।।

तुम तो कहते थे इसके लिए है दीवानी दुनिया।
मैंने तों यहां से भागने की छटपटाहट देखी।।

तुम तो कहते थे बहुत शकूं है यहां।
उसने तो मुझसे ही शकूं का पता पूछा।।

मंगलवार, 8 मई 2012

हन्ता














आकर बैठ गया है

सिद्धांत
सांप की तरह
सिरहाने में
कुण्डली मार कर...

नागपास की तरह
जकड़ लिया है
अस्तित्व को..
और डंस रहा है
सबको
पर
हन्ता होने का एहसास
तक मुझे नहीं होता...

शनिवार, 5 मई 2012

जिंदा रहूंगा अमर होकर

खौफ मुझकों न कभी तुफां का रहा,
मैं जलता हूं अपने जुनूं का असर लेकर।

जिंदगी से है मोहब्बत, पर मौत से भी यारी है,
ये समुद्र लौट जाओं तुम अपना कहर लेकर।।

वे और होगें जो मरते हैं गुमनाम होकर,
इस जहां में मैं जिंदा रहूंगा, अमर होकर।

2
कभी कभी जिंदगी भी दगा देती है, देर तक साथ रह, सजा देती है।
बेमुरौव्वतों की वस्ती में साथी, मौत भी आकर कभी वफा देती है।।

3
गुरवतों के दिन भी तुमने शिददत से निभाई यारी।
साथी, बेमुरौव्वत जहां में तुमको नहीं आती दुनियादारी।।

बुधवार, 2 मई 2012

सजाए मौत


अपराधी की तरह
कठघरे में खड़े
प्रेम से
न्यायाधीश ने
उसके होने की वजह
पूछी,

निरूत्तर प्रेम
अपने अस्तित्व का
कोई वजह
नहीं कर सका पेश

और
न्यायाधीश ने उसे
सजाए मौत दे दी.....

मंगलवार, 1 मई 2012

मजदूर..


सर झुकाये
मौन
चुपचाप..
सुन रहा है गालियां..
पूरे दस मिनट देर से काम पर आया है
गुनहगार!
.
.
थक गया है
काम करते-करते
खैनी बनाने के बहाने सुस्ता रहा है,
या फिर मूतने का बनाता है बहाना।

मालिक फिर चिल्लाया..
साले

हरामी

इसी बात की मजदूरी देता हूं....

हमारे घर भी आते हैं ये मजदूर!



(मजदूर दिवस पर एक पुरानी रचना)

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

खूबसूरत स्तन


भूख से बिलखने पर
मां ने स्तन निकाल कर
बच्चे के मूंह में लगा दिया
वासनातुर नजरों से बेखबर
भरी बाजार में....

बेलज, असभ्य, जंगली,
संभ्रांत सी महिला ने ताना दिया...

ब्रेस्ट क्लीवेज
और
ब्रेस्ट इम्प्लांट
के नेक्स्ट जेनरेशन में
अब ऐसी
बेलज,
असभ्य,
और जंगली मां
कहां मिलेगी...

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

लबादा


लबादा ओढ़ कर जीते हुए
सबकुछ हरा हरा दिखता है
बिल्कुल
सावन में अंधें हुए
गदहे की तरह।

लबादे को टांग कर अलगनी पर
जब निकलोगे बनकर
आमआदमी
तब मिलेगी जिंदगी
कहीं स्याह
कहीं सफेद
कहीं लाल
और कहीं कहीं
बेरंग

रविवार, 15 अप्रैल 2012

शुन्य का सिद्धांत


जिंदगी गणित की किताब है।
दशमलव, सम और विभाजन
अध्यायों की तरह
जटिलताओं के साथ
सामने आ जाती है
अचानक...

गुणनफल और भागफल
की अतिमहत्वाकांक्षा का
गणितीय सुत्र हर किसी के पास
होता भी तो नहीं....

न ही हर कोई जानता है
वर्गमूल का सिद्धांत,
कुछ सम की परिभाषा
को ही मानते है
और कुछ का जीवन
विखण्डन के सिद्धांत
को प्रतिपादित करता है..

पर साधू होना सर्वश्रेष्ठ
गणितज्ञ होने जैसा है
जिन्हें शुन्य का सिद्धान्त पता होता है...

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

गजल


न हिंदू लगता है, न मुस्लमान लगता है।
अजीब शय है वह, इंसान लगता है।।

यूं तो फरीस्ते ही सभी है इस कब्रिस्तान में।
अदब से जो शख्स शैतान लगता है।।

रोज हंसता है वो धोकर अपने दामन से लहू।
लूटा हो जैसे गैरों का अरमान लगता है।।

खुदा भी वही है, खुदी भी उसी के पास।
बोल दो, वह बड़ा ही बदगुमान लगता है।।





बुधवार, 4 अप्रैल 2012

तुम आदमी हो या राक्षस..




















उनकी बात क्यों करते हो
जिन्होंने
रंग-रोगन किए महलों
और
चमकते कंगूरों से
सजा लिया है अपना बाह्य...।

उनको भी क्यों सराहते हो
जिन्होंने
अनीति-अधर्म की साझेदारी से
घोषित कर दिया है
खुद को प्रजापति...।

और तुम्हारा
सीना क्यों फूल जाता है
उनका साथ पाकर
जिनकी
रावण सरीखी विद्वता
स्वर्ण महलों में रहती है

जबाब दो मुझे
तुम आदमी हो या राक्षस..

गुरुवार, 29 मार्च 2012

जीवन का कूड़ेदान














घर की सफाई करते
कूड़े़ को भी
उलट-पुलट
देख लेता हूं
कई बार..
बिना जांचे-परखे
कूड़ेदान में फेंकने का मलाल
रह जाता है
जीवनभर...
शायद कुछ महत्वपुर्ण हो?

जीवन की फिलॉस्फी भी
इसी तरह है
जाने कब, कहां, कैसे
जिसे हमने फेंक दिया
कूड़ा समझ कर
आज भी है उसके फेंके जाने का मलाल
सीने में एक टीस की तरह
शायद वह भी महत्वपुर्ण होता...

मंगलवार, 27 मार्च 2012

प्रेम-काव्य


प्रेम की कविता केवल वही नहीं लिखते 
जिन्होंने प्यार किया
या कि प्यार में धोखा पाया।

प्रेम की कविता वे भी लिखते हैं
जिन्होंने कभी प्रेम की चाहत की 
पर इजहार न कर सके।

प्रेम काव्य तो उनका भी होता है
जिनका पहला प्रेम पत्र
आज भी 
किताब की कब्र में 
चिरनिद्रा में सो रहा होता है।

प्रेम काव्य वे भी लिखते है
जो शब्दों के मोती के साथ
प्रियतम तक पहुंचाते है दिल की बात।

और प्रेम काव्य लिखते हुए
आज भी मिल जायेगी 
कई मीरा------


शनिवार, 10 मार्च 2012

एक रोटी और
















तन्हा बैठा, तो गूंज उठा शोर, अन्तः का।
शांति, तुफान के पुर्व की, या कि,
तुफानों में घिरे जीवन के मृत्यु का।

जो हो, पर अब
न तुम जूता पहन आने पर झगड़ती हो।
न मैं देर से चाय देने पर बिगड़ता हूं।।

न तुम एक रोटी और की जिद पकड़ती हो।
न मैं एक रोटी और मांगने को चिघड़ता हूं।।

और इस एक रोटी की भूख से
आत्म-क्षुधा रह रही है अतृप्त।
और कठपुतली बनी जिंदगी
ढुंढ रहा है विस्तृत।।

नंगा कर खड़ा कर दिया है दोनो को
हमारे स्पर्श की अस्पृश्यता ने।
ओह!
यह तो प्रेम की मृत्यु है
और
जीवन जीने की विवशता भी....

बुधवार, 7 मार्च 2012

बुरा न मानो होली हे


अबकी फागून, लालू भैया को नहीं रहो हे भाय।
पावर गये तो कुर्ता फाड़ होली, कोय नै खेले आय।।
जोगीरा सारा रा रा
राबड़ी भौजी भी अब रहने लगी उदास।
भांग के शरबत औ मलपूआ, खाले कोय न आय।।
जोगीरा सारा रा रा
का से कहें सुशासन बाबू, आपन जीया के बात।
जंगलराज के जनावर सब उनके हींया चिल्लात।।
जोगीरा सारा रा रा
मीडिया के महंथ सब होली में खूबे रंग रहो जमाय।
स्टिंगर सब बिन पैसा के बीबी से झाडू खाय।।
जोगीरा सारा रा रा
अब तो मीडिया भी रंडी भयो हे जात।
जेकर अंटी नोट दिखे, ओकर नाच दिखात।।
जागीरा सरा रा रा
फागून महिना मस्त है, गोरियो के मन बौराय।
पियबा बैठ परदेश में, केकरा से फगूआ मनाय।।
जोगीरा सारा रा रा
आमा के गाछी पर देखा मंजरा महके हे मह मह।
देख यौबनमां भौजाई के देवरा के जियरा दहके हे दह दह।।
जोगीरा सारा रा रा
और कहो तों राहुल बाबा, कैसन तोहर हाल।
राजशाही छोड़ के देखा कैसे मंहगी में जीयल जाल।।
जोगीरा सारा रा रा
और सुनाओ सुषमा भौजी, ठुमका के कैसन रहल जमाल।
राजघाट पर नचली ता युपी में दिखल कमाल।।
जोगीरा सारा रा रा






आओ खेले फाग


आओ खेले फाग
राग द्वेष बिसुरा दें
सतरंगी खुशियां बांटे
गैरों को गले लगा लें।

जीवन हो उमंग
रंग चहुं ओर मिला दें
राग, पराग, गुलाब,
खुश्बू सगर फैला दें।

मन मंे, तन में
और जतन में
प्रेम रंग छलका दें।
करम, धरम हो एक,
संदेसा चलो सुना दें।

चेहरा हो रंगीन औ मन में हो कादा,
बाहर भीतर हम दिखे क्यों आधा आधा,
हो न ऐसा दोहरा जीवन
करलो तुम यह वादा।

अरूण साथी की ओर से आप सबको होली की रंग बिरंगी शुभकामनाएंे......






आशा ही नहीं पुर्ण विश्वास है
होली का असर छा गया होगा....
और ब्लैक से नहीं खरीदना पड़े
पहले ही वीयर घर आ गया होगा।




(फोटो-मेरा नटखट बेटा.)

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

हौसला रखना।।



मुझसे बस इतना सा गिला रखना।
गलत होगे तो सुनने का हौसला रखना।।

मैं आदतन आदमी कुछ खराब हूं।
मुझसे तालुकात में थोड़ा फासला रखना।।

जमाने से कुछ जुदा है फितरत साथी की।
मोहब्बत है तो रूठने-मनाने का सिलसिला रखना।।

कुछ टुकड़े
1
राख अगर है तो चिंगारी भी होगी।
इसी से जुल्म को जलाने की तैयारी भी होगी।।
2
बिछड़कर भी उनको मुझसे शिकायत है।
ना खुदा, यही तो इश्क की रवायत है।।
3
मेरे अजीज इतनी सी इनायत रखिए।
दोस्ती के सिरहाने लफ्जों में शिकायत रखिए।।
4
गुनहगारों से गुनाहों का सबब पूछते हो।
ना खुदा, क्यों बन बेअदब पूछते हो।।
5
आज फिर मौसम ने शरारत की है।
सूरज को कोहरे में छुपाने की हिमाकत की है।





रविवार, 19 फ़रवरी 2012

दीवारों के भी जुबान होते है....


वहां, जहां तुम्हें लगे कोई साथ नहीं है
और सबने बना ली है मौन की दीवार
तुम आवाज लगाना...

तब, जब लगे कि यह जुल्म की इम्तहां है
और तुम हो अकेले
एक आवाज लगाना...

नहीं तुम अकेले नहीं होगे
दीवार के उस पर भी
रहते है कुछ जिंदा लोग
जिन तक पहुंचेगी
तुम्हारी आवाज

भले दीवार के उस पार
कोई देख नहीं सकता
पर, सुना तो होगा ही कि
दीवारांे के भी कान होते है
और जब कुछ लोग
होगें तुम्हारे साथ खड़ा
तब तुम पाओगे कि

दीवारों के भी जुबान होते है..

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

कोकून और आदमी




सतत हरे भरे का ग्रास कर
अपनों के लिए बनाया
एक रेशम का घर....?

कराहती रही
शहतूत की कोमलता
और बना हमारा कोकून....?



फिर अनवरत संधर्ष किया
कोकून से बाहर आने का...



फिर कोई रेशमी धागे का लोभी
डाल देता है कोकून को
खौलते हुए पानी में....


फिर वही कोकून बन जाता है
अपनों के लिए श्मशान....?

रेशम के कीड़े और मुझमें
कितनी समानता है...






















गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

बदनाम होने का हैसला चाहिए।


यूं ही विचारों कें समुद्र में उतर कर शब्दों को ढुंढने और
संजोने की आदत से लाचार कुछ लिख लेता हूं,
आपसे साझेदारी कर रहा हूं।















1
बदनाम होने का हैसला चाहिए।

अगर उल्फत है तो कुर्बान होने का भी हौसला चाहिए।
बुर्कानशी जहां में बदनाम होने का भी हौसला चाहिए।।

रोज मरते हैं यहां अकबर, सजता है मातमें बज्म भी।
बेखुद जिंदगी जी, गुमनाम मरने का भी हौसला चाहिए।।

वो जो जीते है फकत वहीं जिंदगी नहीं होती।
मुफ्लीसी में भी जीने का हौसला चाहिए।

(बज्म-सभा)
(बेखुद-आनन्दमग्न।)












2
एक मुस्लस्ल जिंदगी ही बोझ बनती है यहां,
सात जन्मांे के कसम की बात ही बेमानी है।
तुम कहो तो कर भी लूं, वादा मगर जब टूटेगा,
ये सनम यह इश्क की बदनामी है।।

3
रूठ कर जब मिलती हो सनम तो आफताब लगती हो,
मशक्कतो-मेहनत से हासिल खिताब लगती हो।







शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

आखरी आदमी हत्या ?


उस दिन
जब मार दिये जाएगें
वह आखरी आदमी भी
जो कर रहा है संघर्ष
गांव/मोहल्लों
गली/कूंचों
में रहकर,
अपने आदमी होने का....


आज जहां
थोक भाव में बिकते ईमान
और खरीदे जाते आबरू के बाजार में
कोई इसको बचा कर
चुनौती देता है तुम्हें....



आज जहां
सौ रूपये की खातिर
भाई भाई का खून बहाते,
कोई आदमी होने के लिए
लाखों खाक में मिलाते!
अपनों को अपनाते...

तुम बैठ कर सोंचना?
आखिर
आदमी की तरह
दिखने पर भी
तुम आदमी क्यों नहीं हो......

रविवार, 29 जनवरी 2012

कितनी हसीन हो तुम

( ब्लॉगों पर बिचरते हुए एक ब्लॉग पर जाना हुआ और उनकी कविता को पढ़कर कुछ कीबोर्ड पर उकेर दिया...)
















कितनी हसीन हो तुम
बिल्कुल अपनी कविता की तरह
तुम्हारे मुस्कुराहट की बुनावट
और तुम्हारी जुल्फों की घटा
तुम्हारे आंखों में तैरता सागर
और तुम्हारे गालों पर खिला गुलाब

जैसे इसी से चुराया हो तुमने शब्द...
और पिरो दिया हो अपनी संवेदना में
और रच दी हो एक कविता।

या फिर
तुम्हारी संवेदना
तुम्हारा दर्द
तुम्हारा इंतजार
तुम्हारा प्यार
तुम्हारे आंसू
तुम्हारी खुशी

जैसे
इसी से बनती हो कविता

और कहलातें हो हम सभी
कवि....



बुधवार, 25 जनवरी 2012

अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा।



किसने सोंचा था

‘‘केसरिया’’

आतंक के नाम से जाना जाएगा।

‘‘सादा’’

की सच्चाई गांधी जी के साथ जाएगा।

‘‘हरियाली’’

के देश में किसान भूख से मर जाएगा।


और

कफन लूट लूट कर स्वीस बैंक भर जाएगा।


किसने सोंचा था

लोकतंत्र में
गांधीजी की राह चलने वाला मारा जाएगा।

आज भी भगत सिंह फंसी के फंदे पर चढ़़ जाएगा।

किसने सोंचा था

भाई भाई का रक्त बहायेगा।

देश के सियाशत दां आतंकियों के साथ जाएगा।

अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा।

और हमारा देश
शान से
आजादी का जश्न मनाएगा।


जय हिंद।

सोमवार, 23 जनवरी 2012

गांव का अंधविश्वास और विलुप्त नैतिकता।


गांव में
उड़ते हुए नीलकंठ को देखना शुभ है
और यात्रा पर निकलते हुए यात्री
ढेला मार कर इसे उड़ते है....

और कौआ
छप्पर पर बैठ कर जब करता हैं
कांव कांव
तो मेहमान के आने की सूचना हो जाती है

और टीटहीं के बारे में कहते है कि
यह टांग उपर कर सोता है
आकाश कहीं गिरा तो यह
रोक लेगी उसे...

यहां तक की लक्ष्मी की सवारी उल्लू को
भी अशुभ मानते है गांव के लोग

या फिर गिद्ध का घर पर बैठ जाना
माना जाता है अशुभ।
अजीब अंधविश्वासी होते है गांव के लोग भी....


शहरों मंे
लक्ष्मी भी रहती है
और टांग को उपर किए
टिटहीं-लोग भी..

हर जगह मिल जाएगें गिद्ध
और कौआ भी

पर शहरों मंे
नैतिकता, प्रेम और ईमानदारी की तरह
नीलकंठ हो गया विलुप्त..

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

मुसाफिर जिंदगी..


होने और
नहीं होने
के बीच
संषर्ध करती जिंदगी में
होना ही सबकुछ नहीं होता?
नहीं होना भी, बहुत कुछ होता है!

जैसे की,
देह के लिए
सांसों का होना
सबकुछ होता है!

और, सांसों के लिए
देह का होना
कुछ भी नहीं।


प्रेम के लिए केवल
प्रेम का होना सबकुछ होता है,
और नफरत के लिए,
नफरत का होना कुछ भी नहीं।



जीवन में दोनों पहलू
एक दूसरे के पूरक हैं
पर
दोनों का एक साथ
होना, नहीं होता है
और
अधूरी जिंदगी
अनवरत सफर पर चलती रहती है
मुसाफिर की तरह...

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

शुन्यता?


(अरूण साथी सुबह सुबह प्याज छिलते हुए)


सबकुछ उघाड़ देना चाहता हूं,
जीवन ने जो दिया उसको,
जीवन ने जो लिया उसको,
स्याह,
सफेद,
निरर्थक,
सार्थक,
लिप्सा,
अभिप्सा,
सबको,
परत दर परत।

जनता हूं,
प्याज की तरह ही होती है जिंदगी,
उघाड़ कर भी अन्ततः मिलेगी
शुन्यता!

शुन्यता?
जहां से आरंभ
और जहां पर अन्त होती है जिंदगी....




विवेकानन्द की जयंती (युवा दिवस) पर मेरे द्वारा खिंची गई एक बोलती तस्वीर...


शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

हे भारती देखो तुम











हे भारती देखो तुम,
कैसे अपने ही आज लूट रहे,
कैसे आतंकी धर्मभेष में छूट रहे।

हे भारती देखो तुम,
कैसे, गांधी की टोपी आज लुटेरों के सर पर है,
कैसे आज फांकाकशी भगत सिंह के घर पर है।

हे भारती देखो तुम,
आज कैसे जनता की नहीं है चलती,
देखो, कैसे रक्षक ही अस्मत को मलती।

हे भारती देखो तुम,
कैसे अन्नदाता पेट पकड़ कर सो जाते,
और कहीं पिज्जा खा खा कर कारोबारी नहीं अघाते।

हे भारती देखो तुम
अब गंधारी का ब्रत त्याग करो,
एक बार फिर तुम लक्ष्मीबाई का रूप धरो।

हे भारती देखो तुम,
जब देश की खातीर, एक बुढ़ा करता है उपवास,
तब सर्वोच्च सदन में बैठे सब करते है उपहास।

सोमवार, 2 जनवरी 2012

अपना प्यारा गांव।



(पटना एयरपोर्ट पर इंतजार करते हुए गढ़े गए कुछ शब्द...)


यह दुनिया कुछ अजीब है
पता नहीं, पर अनमना सा हूं
भीड़ है, पर मैं अकेला हूं
कुछ अजीब सा एटेनशन है
लोगों के चेहरे पर
जैसे रोबोट है सब।

यहां पर सभी हैं अति सभ्य
या जैसे सहजता छोड़
सभी ने ओढ़ लिया हो अतिवाद।



पर यहां भी है एक बच्चा
जो इधर उधर भाग रहा है
पर लोग उसकी मां को धूर रहें है
संभालती क्यों नहीं?

आफ्हो
यह रोबोटिक दुनिया
और अपना प्यारा गांव।