बुधवार, 9 सितंबर 2015

एक निराशावादी कविता


















समुन्द्र किनारे
तूफानी तरंगों से
बचते-बचाते
बनाया जिसे
उस घरौंदे को

जाने क्यूँ
मिटा देने का 
मन करता है...

बचपन
जवानी
जीवन 
और
रेत का घरौंदा

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

फगुनिया

फगुनिया
***
रे फगुनिया
सुन रही है रे तू
ठन ठन, ठनाक
यह छेनी
हथौड़ी
की आवाज़ नहीं है रेयह प्रेमी की
हाँक है
हनक है
सनक है


सुन रे फगुनिया
यह तुझे
स्वर्ग में भी सुनाई देगी
रे फगुनिया
प्रेम की ताकत है यह रे
पहाड़ का छाती तोड़ दिया इसने
और हमेशा की ही तरह
चूर चूर कर दिया
अहँकार का सीना...
रे फगुनिया
देख तो
यह शहंशाह का
ताजमहल नहीं है रे
यह गरीब का प्रेम है
निर्मल प्रेम
गहलौर घाटी के हर पत्थर पे
तेरा नाम गुदा है रे
रे फगुनिया..
सुन रही है रे
सुन तो

(बिहार के गया के गहलौर में दशरथ मांझी के द्वारा पत्नी के निधन के बाद बाईस सालों तक तक पहाड़ तोड़ कर रास्ता बना दिए जाने के बाद कुछ शब्द ...)