कई बार जिंदगी को जीते हुए खामोशी से बिष पीना पड़ता है, कहीं कोई धन का तो कहीं कोई विद्वता का विष वमन कर देता है। मन में एक टीस सी उठती है और फिर कलम से कविता निकल पड़ती है। कहीं कहीं देवता साबित करने के लिए लोग क्या क्या नहीं करते, अपनी बुराईओं को भूल आप पर सवाल खड़े करते है, मैं आज देवता के होने पर ही सवाल खड़ा कर रहा हूं. आप प्रतिक्रिया दे, थोड़ी देर रूक कर पढ़े.... फिर कुछ कहते जाए...
अमृत बंटते समय
मैं भी खड़ा हो जाता
देवाताओं की पांत में
पर मैं राहू की तरह साहसी नहीं था...
पर आज भी राहू-केतू
साहस से
शापित होकर भी
सवाल खड़े किए हुए हैं
देवताओं के देवता होने पर...
सवाल
जो उठता है
देवताओं के अमरत्व पर
उनके छल पर...
भले ही नहीं सुनो
पर पूछोगे तो कभी...
"कि" इस नक्कारखाने में
तूती की यह आवाज कहां से आ रही है...