साथी
शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013
गुमराह
जिंदगी जी जाती है अपने हिसाब है।
गुमराह लोग जीते है नजरे किताब से।।
सोहबत से जान जाओगे फितरत सभी का।
एक दिन झांक ही लेगा चेहरा नक़ाब से।।
शाकी को क्यों ढूढ़ते हो मयखाने में साथी।
रहती है यह संगदिल हसीनों के हिजाब में।।
चित्र गूगल से साभार
शनिवार, 9 फ़रवरी 2013
धुंआं-धुंआं
झुग्गी-झोपड़ियों से
निकलते धुंऐं को कभी
मौन होकर देखना...
उसमें कुछ तस्वीर
नजर आऐगी..
जो आपसे
बोलेगी, बतियायेगी....
पूछेगी एक सवाल
आखिर यहां भी तो रहते हैं
तुम्हारी तरह ही
हाड़-मांस के लोग
फिर क्यों रोज
इनके घरों से मैं नहीं निकलता?
फिर क्यों दोनों सांझ
इनका चुल्हा नहीं जलता.....?
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