गुरुवार, 16 जनवरी 2014

नाप देता है आदमी



नाप देता है आदमी
जरा सा हंस-बोल 
क्या लिया
नाप देता है आदमी
औरत का पूरा देह
वामन की तरह...

औरत की देह
की चौहद्दी
उसकी गोलाई
से लेकर
चौड़ाई तक
सब कुछ
एक नजर में...

नहीं नाप पाता है
आदमी
ताउम्र
औरत की गहराई...

रविवार, 12 जनवरी 2014

मेंहदीं का सुर्ख रंग...और बिखरे छींटे,,,

वे दिलों से खेलने में बड़ी हुनरमंद,
टूटे दिलों से खेलकर भी मजा लेते है।

उनकी मेंहदीं का रंग सुर्ख यूं ही नहीं,
दिल के लहू को वह हथेली पे सजा लेते है।।

क्यूँ कोई साथी इतना मशहूर हो जाये।
कि वह अपनों से दूर हो जाये।
फिसलन और ठोकर भरी राहों पे तो सभी संभलकर चलते है।
तुम सीधी.सपाट राहों पे संभलकर चलना साथी।।

(एक्सप्रेस हायवे जादे खतरनाक होबो हैय भाय जी)
4
क्यूँ हर शख्स की गलतियाँ गिनाते हो साथी।
जहाँ में आदमी बसते हैए पैगम्बर नहीं बसते।
5
क्यूँ किसी को साथी तुम इतना है भाता।
तुम्हे तो बाजीगरी का हुनर भी नहीं आता।।
6
यूँ ही रूठ कर महफ़िल से चली जाती हो। 
कहो तो अब शिकवा किससे करें।।
एक तुम्ही हो जो मुझसे मोहब्बत कर बैठे।
कहो तो अब रुसवा किसको करे।।
7
अपनी वेवफाई का गिला कैसे करूँ
फिर से मोहब्बत का सिलसिला कैसे करूँ
खोकर भी तुमको पाने की आरजू जिन्दा है अभी
तुम्ही कहो की आज भी यह हौसला कैसे करूँ.

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

देह बेच देती तो कितना कमाती...

(यह पुरानी रचना मैंने झाझा के आदिवासी ईलाके में कई दिन बिताने के बाद लिखी थी आपके लिए हाजिर है।)
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रोज निकलती है यहां जिन्दगी
पहाड़ों की ओट से,
चुपके से आकर भूख 
फिर से दे जाती है दस्तक,
डंगरा-डंगरी को खदेड़
जंगल में,
सोंचती है
पेट की बात।

ककटा लेकर हाथ में जाती है जंगल,
दोपहर तक काटती है भूख
दातुन की शक्ल में..

माथे पर जे जाती है शहर
मीलों पैदल चलकर
बेचने दतमन
और खरीदने को पहूंच जाते है लोग
उसकी देह..................

वमुश्किल बचा कर देह
कमाई बीस रूपये
लौटती है गांव
सोचती हुई कि अगर

देह बेच देती
तो कितना कमाती...............


(चित्र गूगल से साभार )