दरवाजे खिड़कियां
खुली रखी थी हमेशा
हर कोई आ-जा सकता था
बेरोकटोक
हवाओं की तरह
दृश्य-अदृश्य
स्पृह-अस्पृह
न जाली, न पर्दे, न शीशे
सब कुछ खुला खुला
एक दिन अचानक
मृत्यु ने दस्तक दी
कहा, चलो
चौंक गया
यह क्या
ना शोर, न शराबा
ना विरोध, न प्रतिरोध
यह कैसे
कहा- घर वापसी
बेहतरीन रचना और सद्यः प्रासंगिक। मर्मस्पर्शी।
जवाब देंहटाएंसुझाव : रचना वाले पृष्ठ का रंग संयोजन बदल दें तो पढ़ने में ज्यादा आसानी हो सकती है ।
जी आभार। सुधार कर लिए।
जवाब देंहटाएंअनुग्रह के लिए आभार
जवाब देंहटाएंजिन्दगी इक किराये का घर है,इक न इक दिन बदलना पड़ेगा ।
जवाब देंहटाएंछोड़कर सब, वही जाना। मिल गया एक पथ पुराना।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सत्य
हटाएंजब बुलावा आ जाये तो घर लौटना ही पड़ता है,बेहतरीन अभिव्यक्ति ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंजी सही कहा...
हटाएंअब तो यही लग रहा कि कब बिना दस्तक के ही आवाज़ आ जायेगी ... आ अब लौट चलें ।
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति ।
सब जगह यही हाल है
हटाएंजब दरवाजे-खिड़कियां सब खुली थीं तो दस्तक दिए बिना भी सामने आ खड़ी हो सकती थी
जवाब देंहटाएंबंद भी नहीं रख सकते न
हटाएंएक दिन हर एक को यादों की बरात बन जाना है
जवाब देंहटाएंइस जियो ऐसे की आज आखिरी दिन है!
बेहतरीन रचना
आभार
हटाएंअन्तर्मन को छूती लाजवाब रचना ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार
हटाएंबड़ी सरलता से जीवन के विरल सच को कह दिया।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब कविता है...गहन और बहुत कुछ कद दिया आपने सहजता से।
जवाब देंहटाएंकहा - घर वापसी
जवाब देंहटाएंमृत्यु घर वापसी ही तो है। दुनिया रैन बसेरा !!!
यह बात जितना जल्दी समझ आ जाए, उतना अच्छा।
आदरणीय अरूण जी, आपका ब्लॉग चौथाखंभा मेरी रीडिंग लिस्ट में आता है परंतु कुछ तकनीकी गड़बड़ है, मैं उस पर कमेंट नहीं कर पा रही। सादर।
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