शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

कालकंट



















बचपन से बुढ़ापे तक,
गांव की गलियों से
महानगरों की अट्टालिकाओं तक,
जीवन के आदि से अंत तक..
रोज-रोज
क्षण-क्षण
विषवमन करते हैं वे
और मैं
अभ्यस्त हो गया हूं
विष पीने का।

कहीं कोई जाति और धर्म के नाम पर,
कहीं कोई मजूर जानकर,
उगलते रहते हैं
सांधातिक विष।

सदियों से पीते हुए विष को,
काला पड़ गया देह,

और एक प्याला पीकर
नीलकंठ-हो गए भगवान

मैं आज भी कालकंट के कालकंट ही रहा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा....

    कुछ लोगों के हिस्से केवल विष ही आता है ..

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  2. कमाल की रचन है ... ये सच है की विष पीना आज की मजबूरी है ,,, फिर हर कोई शिव भी तो नहीं हो सकता ....

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