बुधवार, 15 दिसंबर 2010

मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता

मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।


समाज के विभ्रन्स आईने में
संवार कर अपना चेहरा,
तज कर अपना अस्तित्व
पहनना समाजिक मुखौटा,
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।

मैं नहीं प्रस्तुत कर सकता
खुद को खुली किताब की तरह,
जिसमें है कई स्याह पन्ने
और कहीं कहीं धृणा
और दम्भ से लिखी गई इबारत।
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।

मैं रोज सुबह उठकर
नहीं दे सकता बांग,
उनके बीच जो करना चाहतें हैं
मेरा जिबह।
काले लिबास मे लिपटे
समाजिक न्यायाधिशों के कठघरे में
साष्टांग लेट
मैं नहीं कर सकता जिरह।


मैं आदमी हूं
आदमी ही रहने दो भला मत बनाओ.

प्रेम....काव्य-(कारण)


पूछा दोस्तों ने मुझसे
क्यों प्रेम किया तुमसे

मैने कहा पता नहीं

सभी ने पूछा
पर मां

वो समझती थी केवल
तुम्हारे घरवाले ने कहा
सारी बुराइयों है मुझमें

कारण सभी जानना चाहतें है
किसे पता है

प्रेम में कारण नहीं होता!

रविवार, 12 दिसंबर 2010

पुरानी फाइलों को उलटते कलटते पांच साल पूर्व कागज के टुकड़ों पर लिखे दिल की बात के कुछ पन्ने मिल गए, सोंचा आपसे सांझा कर लूं, पेश है-

इसे संयोग कहे या दुर्योग, आज दो वाक्या एक सा घटी। प्रथम हिंन्दी दैनक ‘‘आज’’ में मेरे द्वारा गेसिंग (जुआ) के अवैध धंधे से संबन्धित समाचार जिसमें हमने बरबीघा नगर पंचायत के प्रतिनिधियों का इस धंधें में संलिप्त रहने की बात उजागर की थी, को लेकर नगर पंचायत अध्यक्ष अजय कुमार द्वारा तिव्र प्रतिरोध दर्ज किया गया और मुकदमा करने से लेकर पत्रकारिता की सीमाओं (उनके द्वारा व्यवस्था का विरोध न करना ही पत्रकारिता है) का ज्ञान भी कराया गया। मैं भी भीर गया बहस हुई।

दूसरा वाकया साहित्यिक पत्रिका पुनर्नावा में हिंदी जगत के प्रमुख हस्ताक्षर और कवि-पत्रकार स्व. नरेन्द्र मोहन की कविता पढ़ी जो निम्नवत थी.....

एक सवाल
जो मेरा मन मुझसे
नित्य पूछता
मुझे ही
जांचता, परखता

वह है-
विवशताओं से बंधी
लट्टू सी धूमती यह बंजर
जिंदगी
है किस काम की?
-यह जिंदगी

कठपुतली?


बहुत देर तक मौन सोचता रहा। कठपुतली? मानवेत्तर गुणों में हो रे चातुर्दिक गिरावट क्या इस बात का द्योतक नहीं कि आज के समाज में जिवित आदमी के लिए स्थान नहीं। सच, विवशताओं में बंधी हर आदमी की जिन्दगी एक बंजर जमीन है। तब प्रश्न यह भी अनुत्तरित रह जाती है कि बंजर जिंदगी भला है किस काम की?

फिर एक और कविता कवि शिवओम अंबर की पढ़ी

अपमानित होकर के भी मुसकाना पड़ता है,
इस वस्ती में राजहंस के वंशज को यारों
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

स्याह सियासत लिखती है
खाते संधर्षों के,
कोना फटा लिए मिलते हैं
खत आदर्शो के।

सबकुछ जान बूझ कर चुप रज जाना पड़ता है
इस वस्ती में विवश बृहस्पति की मृगछाला को
इन्द्रासन से तालमेल बैठाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

जुगनू सूरज को प्रकाश का अर्थ बताते है,
यहां दिग्भ्रमित, पंथ-प्रदर्शक माने जाते है।
हर जुलूस में जैकारा बुलवाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

इस वस्ती में उंचाई मिलती तो है लेकिन
खुद अपनी नजरों में ही गिर जाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

और फिर उठखड़ा हुआ मैं सतत अपनी चाल में चलने के लिए..... सफर अभी जारी है।

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है

कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है।
तन्हाई के सफर में भी कारवां क्यूं है।

कभी तो खामोशी की जुवां को समझो साथी,
क्यों पूछते हो, यह अपनों के दरम्यां क्यूं है।

दुनियादार तुम भी नहीं हो मेरी तरह शायद,
तभी तो कहते हो कि जुल्म की इम्तहां क्यूं है।

यह नासमझी नहीं तो और क्या है,
कि जिस चमन में माली नहीं, और पूछते हो यह विरां क्यूं है।

शीशा-ऐ-दिल से दिल्लगी है उनकी फितरत,
गाफील तुम, पूछते हो संगदिल बेवफा क्यूं है।

इस काली अंधेरी रात में साथी चराग बन,
शीश-महलों को देख डोलता तेरा भी इमां क्यूं है।

कभी तो अपनी गुस्ताखियां देखों साथी,
की अब बन्दे भी यहॉ खुदा क्यूं है।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

नेतवा सब भरमाबो है. (मगही कविता)

अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है.
गली गली जे दारू बेचे, ओकरे खूब जीताबो है.

पहले हलथिन रंगबाज
फिर कहलैलथिन ठेकेदार
अब हो गेलथिन एमएलए
जनसेवका के सब हंसी उडाबो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है.


सूट बूट है उजर बगबग
स्कारपीयों  करो है जगमग
टूटल साईकिल से ई लगदग
कहां से, कोय नै ई बतावो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है.



अनपढ़ हो गेलइ हे मास्टर
गोबरठोकनी हो गेलइ हे सिस्टर
बड़का बाप के बेटा हे डागडर
फर्जी डिग्री के फेरा में
ग्रेजुएट भैंस चराबो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है


कभी मण्डल
कभी कमण्डल
कभी राम और
कभी रहीम
आग लगाके नेतवन सब
घर बैठल मौज उड़ावो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है


की कुशासन
की सुशासन
गरीबन झोपड़ी नै राशन
चपरासी से अफसर तक
सभे महल बनाबो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है



लोकतन्त्र में
कागवंश के
राजहंश सब
बिरदावली अब गावो है

चौथोखंभा भी रंगले सीयरा संग 
हुआ हुआ चिल्लाबो है
हुआ हुआ चिल्लावो है..........

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

अंधकार का अपना अस्तित नहीं होता, जहां कहीं भी रौशनी होगी, अंधकार नहीं होगा......आचार्य रजनीश. .

अंधकार का अपना अस्तित नहीं होता, जहां कहीं भी रौशनी होगी, अंधकार नहीं होगा......आचार्य रजनीश.
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रौशनी के पावन पर्व की मंगलकामनाऎं.............

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

सपना और सपनों का सच

सपना और
सपनों का सच


सपनों के लिए है जरूरी
नीन्द का होना
निबाZेध और
निर्जीव सा होना
सपनों के लिए है जरूरी
आदमी को चैन से सोना...

सपना
सच है अन्त:करण का
सपना सच है
जीवन और मरन का.....

सपनों से आगे भागो तुम
सपनों से सो कर जागो तुम


सपना है अन्त: का विस्फोट
सपना है अन्त: का आक्रोश
सपना है अन्त: का स्नेह
सपना है  अन्त: का क्लेश

सपना भले ही सपना है
सपना ही शास्वत अपना है.......

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

गुलजार की कुछ नज्में

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है।

यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुग़ालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई

हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं
हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं
एक है जिसका सर नवें बादल में है
दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है
एक है जो सतरंगी थाम के उठता है
दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है
फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा
एक है दौड़ लगाने को तय्यार खडा है
‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तय्यार खडा है
हिंदुस्तान उम्मीद से है!
आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है
सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है
साठ साल आजादी के…हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है
अगला मोड़ और ‘मार्स’ पर पांव रखा होगा!!
हिन्दोस्तान उम्मीद से है..
 

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जरूरी तो नहीं।




जरूरी तो नहीं।

हर ख्वाब की तामीर हो,
जरूरी तो नहीं।
हर शक्स की अच्छी तकदीर हो,
जरूरी तो नहीं।

माना कि मदहोश कर देती हो तुम शाकी,
बहक जाय हर शख्स,
जरूरी तो नहीं।

बहुत हसीन शोहबतें तेरी हमदम,
हासील हो सभी को ,
जरूरी तो नहीं।

सच है, तेरे चाहने वाले हैं कई,
बन जाओ सभी की ,
जरूरी तो नहीं।

तेरा आइना तुझे जी भर के देखता होगा,
हर सय की आइने सी तकदीर हो,
जरूरी तो नहीं।

कोई तो तेरे ख्वाब में आता होगा,
मुझे भी तुम बुलाओं,
जरूरी तो नहीं।

चाहा है मैंने तुझे जानो दिल से बढ़कर,
तुम भी मुझे चाहो,
जरूरी तो नहीं।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

REPOTER

शनिवार, 21 अगस्त 2010

पाकिस्तान में पानी की तबाही.......








शकून के पल.... गांव की एक दोपहर














खेलते बच्चे........


मंदिर के पास अराम करती महिलए.....


यगशाला में ताश खेलते मर्द.....

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

नरेन्द्र मोदी को बिहार अवश्य आना चाहिए......

नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे पहले टुडे ग्रुप के संपादक प्रभु चावल की टिप्पणी को उदिृत करना चाहूंगा जिसके अनुसार नरेन्द्र मोदी से सभी नफरत करते है सिबाय जनता के। इण्डिया टुडे के हालिया सर्वे में मोदी के देश के नंबर 1 मुख्यमन्त्री है। अब बिहार में होने बाले चुनाव में अभी सबसे बड़ा मुददा यही है कि नरेन्द्र मोदी और बरूण गांधी को बिहार आना चाहिए या नहीं। मेरा मानना है कि नरेन्द्र मोदी को बिहार अवश्य आना चाहिए, खास कर मोदी का बिहार दौरा देश की भावी राजनीति को तय करेगा।

आज देश की राजनीति जिस करबट ले रही है बैसे समय में एक बार फिर बिहार देश को राजनीतिक दिशा दे सकता है। आज देश के लिए सबसे प्राणधातक पहल मुस्लिम तुस्टीकरण के नाम पर आतंकबादियों का तुष्टीकरण है। आने वाले दिनों में वोट की यह राजनीति देश को डुबोएगी। मेरा मानना है कि देश की राजनीति आज जहां खड़ी है वहां आतंकबाद से भी बड़ मुददा आतंकबाद के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के साथ साथ हिन्दू आतंकबाद जैसे शब्द को प्रयोजित करना है। अब जबकि सीबीआई ने मोदी को िक्लन चिट दे दी है तब नीतिश कुमार को भी एक मौका मिला है और वह भी तुष्टीकरण की इस नीति का परित्याग कर आगे बढ़े। धर्मनिरेपक्षता के आड़ में दोहरी नीति चलाने बाले राजनीतिज्ञों के दो चेहरे सामने आना ही चाहिए। जब बिहार में जामा मिस्जद के इमाम बुखारी बिहार में चुनावी गुहार लगा सकते है तब नरेन्द्र मोदी और बरूण गांधी क्यों नहीं। भाजपा को आगे आकर सत्ता की छोटी सी चाह को दरकिनार कर देश के भविष्य की सोचनी चाहिए।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

दुष्यंत कुमार - तीन गजल

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए


आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख

दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख

ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख

रख्ह,कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.

मैं जिसे ओढ़ता—बिछाता हूँ

मैं जिसे ओढ़ता—बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल—सी गुज़रती है
मैं किसी पुल—सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

रविवार, 1 अगस्त 2010

"If you are in trouble, if you need a hand, just call my number, because i'm your friend "



"If you are in trouble,
if you need a hand,
just call my number,
because i'm your friend " 

"If you are in trouble,
if you need a hand,
just call my number,
because i'm your friend " 

सोमवार, 31 मई 2010

चीरफाड़ पर विनोद जी का आलेख पढ़ने के बाद मेरी टिप्पणी'........पत्रकार अधोषित रूप से इस बात का पालन कर रहे कि सरकार के खिलाफ खबर नहीं लगेगी।

आपने  जिस  बात की चर्चा की है उसमें बहुत सच्चाई है। और यहां बिहार मे रहकर मेरे जैस लोग रोज रोज इससे रूबरू हो रहे है। पत्रकार अधोषित रूप से इस बात का पालन कर रहे कि सरकार के खिलाफ खबर नहीं लगेगी। इससे सम्बंधित एक बाकाया मैं सुनाना चाहूंंगा। राष्ट्रीय सहारा की बैठक में जब एक पत्रकार बंधू ने संपादक श्री हरीश पाठक से यह पूछ लिया कि नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ जब खबर भेजते है तो वह क्यों नहीं छपती तो आदरणीय संपादक महोदय खामोश हो कर इस तरह बगले झांकने लगे जैसे किसी ने उनकी चोरी पकड़ ली हो  और जब इस बात पर फिर से जोर दिया गया तो झुंझला कर बोले के इसके लिए प्रबंधक से बात करीए।
हम और हमारे साथी इसके भुग्तभोगी है और जानते है कि सरकार के खिलाफ खबर नहीं छपनी है। एक और बाकया मैं बताना चाहूंगा। मैं बिहार के शेखपुरा जिले से रिपाZेटिंग का काम करता हूं और आज से एक साल पहले पशु हाट के विवाद को लेकर कांग्रेसी नेता सुरेश सिंह कें पशु हाट के लाइसेंस को रदद कर जदयू नेता एवं अनन्त सिंह के भाई त्रिशुलधारी सिंह ने पशु हाट को अपने आदमी के नाम कर ली। इस प्रकरण में पूरा जिला पुलिस जानवर को पकड़ कर नये पशु हाट पर ले गई और जिसने इसका विरोध किया उसपर मुकदमा किया गया तथा मारपीट हुई हम सभी ने इस खबर को लगातार कितनी बार भेजा पर एक बार भी प्रकाशित नहीं किया गया। शेखपुरा जिला के बरबीघा-शेखोपुरसराय सड़क के किनारे पत्थर का टुकड़ा देने तथा सफेद पटटी बनाने का ठीका एक जदयू के चहेते को दे दिया गया बिना किसी टेण्डर कें 12 लाख का ठेका। इस समाचार को सभी अखबारो में भेजा गया पर किसी ने इसे प्रकाशित नहीं किया।
जदयू के एक नेता जी है जिनके अनुसार अब हमलोगेां बेकार अकड़ते है अखबार को ही मैनेज कर लिया गया है।
हां अभी कल ही एक बहुत ही बुरी खबर आई है एसएमएस के जरीए। साधना न्यूज चैनल के लिए मैं काम करता हूं और  कल से पहले सरकार के खिलाफ खबर नहीं ली जाती थी पर आज सरकार के खिलाफ खबर भेजने के लिए आशुतोष सहाय जी का एसएमएस  आया है लगता है चैनल का सरकार के साथ सौदा नहीं पटा और पटाने को दबाब बनाया जाएगा। क्या क्या लिखे। आठ साल से ग्रामीण क्षेत्र से समाचार प्रेशण का काम कर रहा हूं पर आज लगता है कि यह सब बेकार कर रहा। पहले जन समस्याओं को लेकर लड़ता था, नेताओं की पोल खोलता था, डाक्टर अस्पताल में नहीं इसके लिए समाचार लगातार भेजता था पर आज यह सब करने को मन नहीं करता पता नहीं शायद अब मुझे भी लगने लगा है कि किसी से दुश्मनी मोल लेकर  क्या मिलेगा, फयादा क्या होगा। इसी उधेरबुन मे आज कल जी रहा हुं।

अन्तराल


अन्तराल

दर्द और हंसी के बीच...

जो जुड़ा था 
उसके टूटने से पहले...

टूटना है नये का आगमन
और बीच का अन्तराल
पतझड़

जहां कलरव करते थे विहग
आज है वहां सन्नाटा....

और फिर 
इसी अन्तराल में अयेगा वसन्त....

वसन्त

पतझड़

और बीच का अन्तराल....

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

दहेज की आंच में जल रहा है समाज, मुंह मांगी कीमत पर बिक रहे दुल्हे।

दहेज की आंच दिन व दिन बढ़ती ही जा रही है। आलम यह कि बेटियों की शादी के लिए जूते घिसने की बात आज भी चरितार्थ हो रही हैं। दहेज को लेकर बरतुहारी करने वाले परिजन जहां कड़ाके की धूप में भी बेटियों की शादी के लिए भटक रहे हैं वहीं बेटों के बाप के पैन्तरे देख उनका हलक तक सूख रहा है। दहेज को लेकर दुल्हों की कीमत दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है और अब तो यह सामाजिक स्वीकार्य हो गई है। दहेज में जहां नौकरी बालों के भाव सातवें आसमान पर है वहीं बेरोजगार दुल्हें भी अपनी कीमत बढ़ा चढ़ा कर बसूलने में लगे हुए हैं। सबसे पहले बेरोजगार दुल्हों की बात की जाय तो जातियों के आधार पर इनकी कीमत भी अलग अलग है। जहां सवर्ण बेरोजगार दुल्हे की कीमत दो लाख से लेकर तीन लाख तक है वहीं यदि उसके पास यदि पुस्तैनी जमीन हो तो कीमत चार से पांच लाख भी जा सकती है वहीं अन्य समुदायों में बेरोजगार दुल्हे भी एक से दो लाख में िबक रहे है। दलितों में भी दहेज का चलन बढ़ता ही जा रहा है और दिहाड़ी मजदूरी करने वालों के लिए भी अपनी बेटी की ंशादी एक समस्या बन गई है। दूसरे पैदान पर व्यापार करने वाले दुल्हे आते है जिसकी कीमत तीन से पांच लाख होती है। हलंाकि उसकी कीमत व्यापारिक स्थिति पर निर्भर करती है और यदि व्यापार अच्छी रही तो कीमत उपर भी जा सकती है। तीसरे पायदान पर कर्मचारी स्तर के तथा सिपाही दुल्हे आते है जिसकी कीमत अब चार से छ: लाख होती है। सिपाही दुल्हे की मांग हलांकि उसके उपरी कमाई को देखते हुए अधिक भी हो जाती है। उसके बाद चौथे पायादान पर अन्य शिक्षक स्तरिय तथा प्रखण्ड स्तरिय कर्मचारी की मांग भी अच्छी है और इनकी कीमत भी छ: लाख के आस पास होती है। हालत यह भी है कि निविदा पर नियुक्त दुल्हे की मांग भी बढ़ गई है और मरता क्या नहीं करता की तर्ज पर बेटी के पिता इन दुल्हों को खरीदने में भी कोेई कोताही नहीं कर रहें। यही हाल उनके दुल्हों की भी है जिसके पिता या माता नौकरी करतें है और बेटा बेरोजगार हो। छठे पायदान पर अधिकारी वर्ग के दुल्हे आते है और इस सब में यह देखा जाता है कि लड़के की उपरी कमाई कितनी अधिक होती है। जिसमें जितना अधिक कमाई का चांस होती है उसकी मांग उतनी ही अधिक है और इनकी कीमत दस लाख से पन्द्रह लाख तक जाती है। सातवें पायदान पर राजपत्रित अधिकारियों आते है और इन दुल्हों की कोई कीमत ही नहीं होती जो जितना अधिक देते है शादी उसी के साथ होती है। दहेज के इस दवानल में जहां बेटियों के बाप जल रहे है वहीं दिन व दिन बढ़ते इस विकराल दानव के दमन का कोई आस लोगों को नज़र नहीं आता।
कुछ साल पहले तक निजी कंपनियों में काम करने वाले की डिमाण्ड उतनी अधिक नहीं थी पर जैसे जैसे लोग निजी कंपनी के दुल्हे को तरजीह देने लगे है वैसे वैसे यह और विकराल होता जा रहा है। बेटियों के पिता कें लिए बेटी की शादी करने में आज जो सबसे बड़ी दिक्कत हो रही है वह यह कि दुल्हे के पिता के पास जब शादी की बात लेकर लोग जाते है तो ंअभी शादी नहीं करने की बात कह कर टरका दिया जाता है उकसे बाद शुरू होता है दौर दुल्हे के पिता को शादी के लिए राजी करने का दौर और फिर सारी उर्जा लगा कर जब उन्हें शादी कें लिए राजी किया जाता है तो उनकी फर्माइशंंंें की फेहरिस्त इतनी लंबी होती है कि उसे पूरा करने में पसीने छूट जाते है और दहेज में कटौती की बात ही नहीं आती है।

दहेज के इस विकराल रूप की वजह से जहां कन्याओं को जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है वहीं पुरूष और महिला अनुपात में महिलाओं की संख्या कमने का प्रभाव भी दहेज पर पड़ता नज़र नहीं आता है। कन्या भ्रुण हत्या जैसे जधन्य अपराध करने वाले मां-बाप जहां दहेज को ही तर्क बना रहें है वहीं समाजिक स्तर पर इसके लिए कोेई पहल होती नज़र नहीं आती।


कि फिर आऐगी सुबह

हर सुबह एक नई उम्मीद लाती है


खब्बो से निकाल


हमको जगाती है




अब शाम ढले तो उदास मत होना


उम्मीदों कों सिरहाने रखकर तुम चैन से सोना


कि फिर आऐगी सुबह


हमको जगाऐगी सुबह


रास्ते बताऐगी सुबह


उम्मीदों कें सफर को मंजिल तक पहूंचाऐगी सुबह................. 

गुरुवार, 25 मार्च 2010

कहां हो भगवान


वमुिश्कल अपने मालिक से
आरजू-मिन्नत कर
जुटा पाई अपने बच्चे के लिए 
एक अदद कपड़ा।

मेले में बच्चे की जिदद ने
मां को बना दिया है निष्ठुर।

बच्चे की लाख जिद्द पर भी
नहीं खरीद सकी एक भी खिलौना।

देवी मां की हर प्रतिमा के आगे
हाथ जोड़ 
सालों से कर रही है प्रर्थना 
एक मां.....

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

यह कोई कहानी नहीं, मैं अपना दर्द आपके साथ बांटना चाहता हूं बस....... प्रेम की अग्निपरीक्षा

यह कोई कहानी नहीं, मैं अपना दर्द आपके साथ बांटना चाहता हूं बस.......
प्रेम की अग्निपरीक्षा

रीना के सिसकने की आवाज से मेरी आंख खुल गई और मैं रीना को टहोकते हुए पूछा क्या बात है क्यों रो रही होर्षोर्षो वह कुछ नहीं बोली। उसके आंखों से अविरल आंसू झड़ रहे थे। उसकी सिसकियां धीरे धीरे तेज हो रही थी। इस बार मैंने उसे जोर से झकझोरा तब उसने हल्की सी जुिम्बश ली और मैं समझा की यह तो सोई हुई है और नीन्द में रो रही है। शायद कोई बुरा सपना देखा होगा। तब मैंने उसे जोर से झकझोरा तो वह अकचका कर क्या हुआ, क्या हुआ, कहती हुई उठ बैठी और जब मैंने उसे उसे बताया की तुम नीन्द में रो रही थी तो वह सचमुच मुझसे लिपट कर रोने लगी। बोली, पिताजी मर गए, यह सपना देख रही थी और सपने में रो रही थी। उसकी इस बात से मैं सिहर गया, एक नारी अपने आकांझाअो, अरमानों को किस हद तक सीने में दबा सकती है, आज एहसास हुआ। हम दोनों ने प्रेम विवाह किया है, वह भी घर से भाग कर और शादी के आज अठठारह साल हो गए और तब से आज तक रीना को उसके मायके से कोई सम्बंध नहीं है। उसके पिता और भाईयों की नज़र में वह मर चुकी हैं। शादी कें कुछ ही दिनों बाद रीना के परिजनों ने एक पुतला बना कर  उसका दाह-संस्कार किया, तेरह दिनों का कर्मकाण्ड किया, सर मुण्डवाऐ, पण्डितो मों भोज दिया और घोषणा कर दिया गया आज से वह मर चुकी है। उस समय जब उसे इस बात का पता चला तो उसने गर्व से कहा था कि ``यह उसके प्रेम की अग्निपरीक्षा है।´´ और इन अठठारह सालों में कितने ही अच्छे बुरे दिन आये गए और हमारा सम्बंध और मजबूत होता गया। आज तक इतनों सालों में एक बार भी उसने अपने स्वाभिमान को डिगने नहीं दिया पर आज वह रो रही थी, उसके आंखों से अविरल आंसू वह रहे थे और मुझे लग रहा था कि यह आंसू मुझसे ही कोई सवाल पूछ रहा हो।

रीना के सपनों में रोने की वजह भी है। कल ही किसी ने बताया कि उसके पिताजी की हालत गम्भीर है और अब वे नहीं बचेगें। जबसे उसने यह सुना वह चिन्तित रहने लगी। इतने सालों से सहेजा उसका स्वाभीमान आज डिगने लगा। पिता से अन्तिम मुलाकात भी नहीं हो सकने की संभावना ने उसे डिगा दिया। रीना का अपने पिता के प्रति प्रेम तो नैसगिZक था पर उस पिता के लिए जिसने उसके लिए प्रेम करने की सजा अग्निपरीक्षा मुकर्रर की है। 

हम दोनो बचपन से ही एक साथ खेलते हुए जवान हुए और  आज जीवनसाथी के रूप में जी रहे है पर रीना के लिए प्रेम की सजा बहुत बड़ी थी शायद सती के अग्निकुण्ड में जलने जैसा और मैं शिव तो हूं नहीं की ताण्डव करू। बस अपने प्रेम को अग्नि कुण्ड में जलता देख रहा हूं। 
अगले पोस्ट में जारी....................




राम की हत्या

पड़ी है राम की लाश
नाभी में मारा गया ``बाण´´
हनुमान ने निभाई
विभीषण की भूमिका

बतलाया रावण को
राम के अमृत कलश का राज
बतलाया कि राम तभी मर सकते है
जब उनके भक्त ही उन्हें मारेंगेें।

यह भी कि
उनके घर में ही उनकी हत्या की जा सकती है।

प्रगल्भ रावण ने स्वांग रचा
रामभक्त का
और पाषण्डी हनुमान के साथ
घुस कर अयोध्या में
कर दी ``राम की हत्या´´......

प्रियतम तुम हो ..............



प्रियतम तुम हो
सुबह का सूरज
जिसकी आभा से खिलता रहै
जीवन का फुल
सावन की मादक बून्द
जिसके स्पशZ से
भींग जाता है
अन्र्तमन।



पुरबा बयार
जो सांसों में आविष्ट हो
तृषित जीवन को करती है
तृप्त।


अन्तत:
तुम हो तो है
जीने की सार्थकता
और
मृत्यु के आलिंगन का आन्नद भी.....

बुधवार, 17 मार्च 2010

मैं आग लगाना चाहता हूं।



मैं आग लगाना चाहता हूं।
बिना तिली बिना पेट्रोल
अपने पराये सबके अन्दर
दबी आग को भड़काना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।

जाति-धर्म और देश प्रदेश
इन शब्दों के जालों को
मैं अब जलाना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।

राम-रहीम और जेहाद
नक्सलबाद और  आतंकवाद
बुर्जुआ, सर्वहारा की साम्यवाद
सम्पूर्ण क्रान्ति की समाजवाद
सब शब्दों के है मकड़जाल
इन सब को मैं राख बनाना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।

मन्दिर तोड़ो
मिस्जद तोड़ों
तोड़ों गिरजाघर, गुरूद्वारा
कहीं नहीं भगवान मिलेगें
इन तकोेZ कें जालों में
कलयुग के शैतान मिलेगें
इन नक्कारों में मैं सबकों
यह बतलाना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।

जैसे आये थे धरा पर
नंग-धड़ग और शुन्य लिए
अपने सृष्टा कें शरणों में
वैसे ही जाना चाहता हूं
मैं सब जलाना चाहता हूं.............

बुधवार, 10 मार्च 2010

मेरे देश में

मेरे देश में
पिज्जा
एम्बुलेंस से पहले पहूंचती
लूट के बाद पुलिस सजती

मेरे देश में
कार लोन पांच परसेंट पर
एडुकेशन लोन बारह पर मिलती

मेरे देश में
चावल बिकता चालीस रूपये
सिम है मुफ्त में मिलती

मेरे देश में
रही नहीं उम्मीद कहीं अब
चौथेखंभे  से लेकर न्याय तलक है बिकती
मेरे देश में.......

मंगलवार, 9 मार्च 2010

अब बैताल डाल डाल

आज हर जगह पाये जाते है
जिवित बैताल
संवेदनहीन
निष्प्राण
और तािर्ककता से भरपूर
आज घरों में भी
टंगने पर टंगा रहता बैताल।
दफ्तर में बाबूओं की
फाइलों से लेकर,
नेताओं की टोपी पर बैठा
पूछता रहता है सवाल।

अब तो बैताल संसद में भी नज़र आने लगे है।
संवेदनहीन होने के लिए, संवेदनाओं को जगाने लगे है।

महिला बिल से लेकर,मण्डल के कमण्डल तक।
संसद के बाहर-भीतर, उछलते नोटों के बण्डल तक।

बैतलवा डाल डाल गीत गाने लगे है।
हद तो यह कि आज बिक्रमादित्य भी दूर बैठकर
मुस्कुराने लगे है।

बुधवार, 3 मार्च 2010

काला अंग्रेज

यह लूट-खसोट
भ्रष्टाचार
हिंसा
खून की होली
यह विध्वंस
अक्षम्य अपराध
कितने बेलज्ज हो तुम
परतन्त्रता तुमने झेली नहीं न
इसलिए आजादी रास नहीं आ रही
या फिर वषो गुलाम रहकर
बन गए हो तुम भी 
``काले अंग्रेज´´
पर
देना होगा तुम्हें भी हिसाब
तुम बच नहीं सकते 
गुलामी की बेड़ियां काट
जिन्होंने तुम्हे नर्क से निकाला
तुम हुए स्वतन्त्र


एक दिन 
वे शहीद आयेगें फिर
और मांगेगें तुमसे 
तुम्हारे किये का हिसाब....

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

प्रजापति दक्ष।

प्रजापति दक्ष।

अहं
घृणा
हठ
सामाजिक मर्यादा
और खानदान
इन मान्यताओं में आज भी ज़िन्दा है
प्रजापति दक्ष।

आज भी हो रहा है महायज्ञ,
अयोजन होता है जिसका
अपने अहं की तुष्टी
या फिर
किसी को हीनता का एहसास कराने के लिए।

आज भी यज्ञ कुण्ड में भष्म हो  रही है
अपमानित सती।

आज भी है मां विवश, लाचार
कुचला जा रहा है ममत्व।

हे महादेव
हे नटराज
आज क्यों हो तुम दूर
सर्द कैलाश की चोटी पर
शान्त
निश्चल
ध्यानस्थ।

कहां खो गया तुम्हारा
रौद्ररूप। 

क्यों नहीं करते तुम फिर से
प्रलयंकारी ताण्डव।

क्या समय की सिलवटों से ढक गया है
तुम्हारा त्रिनेत्र,
या फिर
तुम ने भी हमारी तरह
प्ररिस्थितियों से समझौता करना सीख  लिया....

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

क्षणिकाऐं

क्षणिकाऐं
1
साक्षेदारी

साक्षेदारी
नहीं करने में समझदारी

2
मोहब्बत

मोहब्बत
बस मिल जाये सोहबत
यही है आधुनिक मोहब्बत।

3
आधुनिक प्रेम

आधुनिक प्रेम
रात भर के लिए प्रेमिका
फिट करने का फ्रेम।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

सौतार (आदिवासी)

मनरे की थापों पर थिरकती
पांवो के साथ साथ थिरकती है
जिन्दगी
ठप ठप ....
जिन्दगी मिलती है यहां अलग अन्दाज में
इनके आंखों में नहीं पलते हैं कल के सपने
आज पर भी नहीं होता है अिख्तयार
एक मुट्ठी भात और दारू
पता नहीं कितनी खुशी दे जाती है
दिन भर भूख से कुहकुहाती है पेट
आज कर्मपीठो बनाया
मिलाकर आंटा और गुड़
इतनी सी बात खुशी के लिए प्रर्याप्त है
चान्दनी रातों में उन्मुक्त नाचती लड़कियां
और मनरे को थाप लगाता
उद्धत युवक
कोई बांसुरी से छेड़ता है अपना सा राग
सबकुछ जैसे आनन्द के अतिरेक सा.
नैसगिZक
उन्मत्त होते है ये
अस्तित्व के साथ गाना
वृक्षों के साथ नाचना
वषाZ के साथ मग्न होना
नदियों के साथ हंसना
यही है इनकी जिन्दगी
दूर बैठे ईश्वर
साथ साथ मैं
सोच रहा
जिन्दगी मात खा जाती है
सौतारों से...........

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

मैं कवि नहीं हूं।

मैं कवि नहीं हूं।
मेरे पास नहीं है
सारगभिZत शब्दों का कोष
मैं नहीं जानता
व्याकरण की व्याख्या
न ही मैं कर सकता
समायोजन
भाव और शब्द में।

फिर भी
मैं लिखता हूं
कविता
क्योंकि
जीवित मेरी संवेदना

मुझे उद्वेलित करते हैं
सामाजिक विसंगतियों के संजाल,
मैं बह जाता हूं
अपनी भावनाओं के साथ
और
मेरी लेखनी उगल देती है कुछ व्याकुल शब्द.........

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

परछाई



परछाई
कभी कभी अपनी परछाई से डर जाता हूं
जब जेठ की दोपहर में
जलने लगता है मन
तब लगता है अपनी ही परछाई
प्रेत बन कर मुझे लीलना चाहती है।

जब कहीं अन्त: के कुरूक्षेत्र में
अपने ही पापों से लड़ने की बजती है
दुन्दुभी
तब युद्ध से पहले ही
मेरी प्रागल्भयता कर देती है
आत्मसमर्पण।

संध्या जब मुझसे बड़ी हो जाती है
मेरी परछाई
तो लगता है मैं अपनी ही हार का
मना रहा हूं जश्न।

और फिर
आती है रात
समेट लेती है मुझे
अपने आगोश में
तब मेरी परछाई मुझसे पुछती है
मेरे होने का शबब......

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

पिता



संघषोंZ के विभिन्न आयामों में

कोई प्रेरित करता है

चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए

चोट खा कर गिरे अस्तित्व को

सम्भालाता है

धीरे से पकड़ाता है अपनी अंगुली

सिखलाता है चलना

नई राहों पर

और फिर

जब दौड़ पड़ता हूं

तो बादलों की ओट से मुस्कुराता है.....

देह बेच देती तो कितना कमाती... (काव्य)



यह रचना मैंने झाझा के आदिवासी ईलाके में कई दिन बिताने के बाद लिखी थी आपके लिए हाजिर है।

रोज निकलती है यहां जिन्दगी
पहाड़ों की ओट से,
चुपके से आकर  भूख
फिर से दे जाती है दस्तक,
डंगरा डंगरी को खदेड़
जंगल में,
सोंचती है
पेट की बात।

ककटा लेकर हाथ में जाती है जंगल,
दोपहर तक काटती है भूख
दातुन की शक्ल में,

माथे पर जे जाती है शहर
मीलों पैदल चलकर
बेचने दन्तमन,
और खरीदने को पहूंच जाते है लोग
उसकी देह.....................
वामुिश्कल बचा कर देह,
कमाई बीस रूपये,
लौटती है गांव,
सोचती हुई कि अगर
देह बेच देती
तो कितना कमाती...............

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

मुझे याद तुम्हारी आई।

जितने फुल चुने थे मैंने
हर पंखुड़ी मुरझाई।
अब तो आओ पिया निर्मोही
मुझे याद तुम्हारी आई।

सावन बीता
फागुन आया
मिलन की आस जगाई
अब तो आओ पिया निर्मोही
मुझे याद तुम्हारी आई।

गुजर गए कितने लम्हें
तेरी यादोें में खोये खोये
मिलती हूं लोगों से हंस कर
दिल हमारा रोये
अब तो आओ पिया निर्मोही
मुझे याद तुम्हारी आई।

होरी में बैरी फगुनाहट
दिल पे छूरी चलाए
अब तो आओ साजन मेरे
यौवन बीता जाये।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

प्रेम

प्रेम

समर्पण का एक अन्तहीन सिलसिला

आशाओं

आकांक्षाओं

और भविष्य के सपनों को तिरोहित कर

पाना एक एहसास

और तलाशना उसी में अपनी जिन्दगी......

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

पाती प्रेम की

पाती प्रेम की

तुम्हारे सौन्दर्यबोध में मैंने बहुत से शब्द ढूंढे़

अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर बारम्बार उकेरा

फिर उसके टुकडे़-टुकड़े किए

हर बार शब्द शर्मा जाते........

फिर इस तरह किया मैंने

अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त

गुलाब की अबोध-नि:शब्द पंखुड़ी को

लिफाफे में बन्द कर तुम्हें भेज दिया......................

प्रेम

प्रेम

जब भी तुम कहीं होती हो,
मुझे कोई बता जाता है।
जब भी कोई फुल मुस्कुराता है
तुम्हारी याद दिला जाता है।
जेठ की दोपहर में
बरगद की छांव तले
बैठा था मैं
कोई बता गया तुम आ रही हो।
तुम रूठ गई हो किसी बात से शायद,
तुम्हारा प्रेम ही तो है रूठना भी कोई कह रहा है।
खलीहान में
धान की बालियों की चुभन ने बताया
तुम यहीं कहीं हो आस पास,
देखा दूर तुम चली आ रही हो।                                                  

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

एहसास

खिला गुलाब प्रियतम कि तुम हंसी हो,
सुबह की चादर के सिलवटों में तुम बसी हो।
सूरज की लालीमा है कि है तेरे अधरों का अक्श,
निशा की कालिमा है कि है तेरे गेसूओं का नक्श। 
अस्ताचलस्त अरूण है कि तेरी निन्द से बोझिल आंखें,
निशा का आगमन है कि तुमने समेट ली अपनी बांहें।
यह हवा की सरगोशी है कि है तुम्हारी हलचल,
तुम्हारी पाजेब खनकी है कि झरनों की है कलकल।
लिपट कर तुम मेरी आगोश में शर्माई
कि मैने लाजवन्ती को छू लिया,
सिमट कर तुम मेरी आगोश में छुपी, 
कि चान्द को बादल में छूपा लिया।
महकी जुही कि तेरी गेसुओं की महक है,
बजी सितार की तेरी चुड़ियों की खनक है।