सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

प्रजापति दक्ष।

प्रजापति दक्ष।

अहं
घृणा
हठ
सामाजिक मर्यादा
और खानदान
इन मान्यताओं में आज भी ज़िन्दा है
प्रजापति दक्ष।

आज भी हो रहा है महायज्ञ,
अयोजन होता है जिसका
अपने अहं की तुष्टी
या फिर
किसी को हीनता का एहसास कराने के लिए।

आज भी यज्ञ कुण्ड में भष्म हो  रही है
अपमानित सती।

आज भी है मां विवश, लाचार
कुचला जा रहा है ममत्व।

हे महादेव
हे नटराज
आज क्यों हो तुम दूर
सर्द कैलाश की चोटी पर
शान्त
निश्चल
ध्यानस्थ।

कहां खो गया तुम्हारा
रौद्ररूप। 

क्यों नहीं करते तुम फिर से
प्रलयंकारी ताण्डव।

क्या समय की सिलवटों से ढक गया है
तुम्हारा त्रिनेत्र,
या फिर
तुम ने भी हमारी तरह
प्ररिस्थितियों से समझौता करना सीख  लिया....

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कविता, शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  2. कहां खो गया तुम्हारा
    रौद्ररूप।

    क्यों नहीं करते तुम फिर से
    प्रलयंकारी ताण्डव।

    क्या समय की सिलवटों से ढक गया है
    तुम्हारा त्रिनेत्र,
    या फिर
    तुम ने भी हमारी तरह
    प्ररिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया....
    Bahut khoob!
    Holi mubarak ho!

    जवाब देंहटाएं