बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

रावण जिंदा रह गया!


पुतले तो जल गए, रावण जिंदा रह गया।
देख कर हाल आदमी का, राम शर्मिंदा रह गया।।

सब कुछ सफेद देख, धोखा मत खाना साथी।
बाहर से चकाचक, अंदर से गंदा रह गया।।

फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा ना कर साथी।
अब तो दुर्गा से भंरूये भी दुआ मांगते, धंधा मंदा रह गया।

जो दिखता है सो बिकता है, पूजा, पंडाल, यज्ञ, हवन।
बेलज्जों की कमाई का साथी धंधा, चंदा रह गया।

दीन, धर्म, ईमान का चोखा है व्यापार।
सौदागरों के हाथों का साथी, औजार निंदा रह गया।।

नया दौर का नया चलन है, देखो आंख उघार।
रावण ही पुतला जला कर कहता, अब तो यह धंधा रह गया।।

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

दो नंबरी औरत..


अपनी पहचान पाने
देहरी से बाहर 
जब उसने कदम रखा
कदम दर कदम 
बढ़ी मंजिल की ओर
हौसला भी बढ़ा,

पर समाज ने दे दी
नई पहचान
दो नंबरी.... 
शायद औरत होने की यह सजा थी 
या  
देहरी के बाहर कदम रखने की...

यही वह सोंच रही है गुमशुम..


शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

बेजुबां बच्चे...और उनकी कविता



इस सरकारी भवन के दरवाजे पर खड़ा होते ही अति-उत्साह के साथ आकर एक बच्चे ने ताला खोला और झट से हाथ मिलाया। पर यह क्या? वह ईशारे से चलने के लिए कह रहा था। ओह! यह बच्चा मूक-बधिर है। उसके साथ ही कई मूक बधिर बच्चे एक कमरे में बैठ कर पढ़ रहे थे। यह शिक्षा विभाग का कार्यालय था। बभनबीघा गांव में स्थित इस बीआरसी भवन में इसी तरह के बच्चों को पढ़ना, लिखना और समझने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।
यहां अति उत्साहित बच्चों ने ईशारों को समझ अपना नाम, पता सब कुछ कॉपी पर लिखने लगा। वहीं प्रशिक्षक श्रणव ने बताया कि इनकी सीखने की क्षमता बहुत प्रबल होती है और यहां अभी डेढ़ माह के लिए 35 बच्चे आवासीय रहकर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे है।
बिहार शिक्षा परियोजना के तहत चल रहे इस कैंप में उन बच्चों का भविष्य संबर रहा है जिन्हें यदि यहां यह प्रशिक्षण नहीं मिलता तो जीवन की इस रेस में रेंगते नजर आते...



इन बेजुबां बच्चों को कविता के माध्यम से मैंने शब्द दी है...

जीवन तो दिया मुझे भी
पर नहीं दिया सुनने
और बोलने का हक।
यानि कि
नहीं दिया जीने का अधिकार,
फिर भी मैं तुमसे नाराज कहां हूं!
जीवन दिया ,
तो जीना ही होगा।
और जीना है,
तो जीतना ही होगा....
शायद इसी जीत में
तुम अपनी जीत देखेगो
मेरे भगवान...