यह रचना मैंने झाझा के आदिवासी ईलाके में कई दिन बिताने के बाद लिखी थी आपके लिए हाजिर है।
रोज निकलती है यहां जिन्दगी
पहाड़ों की ओट से,
चुपके से आकर भूख
फिर से दे जाती है दस्तक,
डंगरा डंगरी को खदेड़
जंगल में,
सोंचती है
पेट की बात।
ककटा लेकर हाथ में जाती है जंगल,
दोपहर तक काटती है भूख
दातुन की शक्ल में,
माथे पर जे जाती है शहर
मीलों पैदल चलकर
बेचने दन्तमन,
और खरीदने को पहूंच जाते है लोग
उसकी देह.....................
वामुिश्कल बचा कर देह,
कमाई बीस रूपये,
लौटती है गांव,
सोचती हुई कि अगर
देह बेच देती
तो कितना कमाती...............
ye mulyon ke choukas rakhavale hai jo bhukh ke liye bhi deh ka souda nahi karte.inako hazaron salam.
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