खिला गुलाब प्रियतम कि तुम हंसी हो,
सुबह की चादर के सिलवटों में तुम बसी हो।
सूरज की लालीमा है कि है तेरे अधरों का अक्श,
निशा की कालिमा है कि है तेरे गेसूओं का नक्श।
अस्ताचलस्त अरूण है कि तेरी निन्द से बोझिल आंखें,
निशा का आगमन है कि तुमने समेट ली अपनी बांहें।
यह हवा की सरगोशी है कि है तुम्हारी हलचल,
तुम्हारी पाजेब खनकी है कि झरनों की है कलकल।
लिपट कर तुम मेरी आगोश में शर्माई
कि मैने लाजवन्ती को छू लिया,
सिमट कर तुम मेरी आगोश में छुपी,
कि चान्द को बादल में छूपा लिया।
महकी जुही कि तेरी गेसुओं की महक है,
बजी सितार की तेरी चुड़ियों की खनक है।
बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंसादर
sundar
जवाब देंहटाएंसजीव चित्रण
जवाब देंहटाएंसुकोमल भावो से सजी सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति:-)
अति सुन्दर!.. और आपकी ब्लॉग भी बहुत सजी-संवरी अच्छी परोसी हुई है..
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