गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

सौतार (आदिवासी)

मनरे की थापों पर थिरकती
पांवो के साथ साथ थिरकती है
जिन्दगी
ठप ठप ....
जिन्दगी मिलती है यहां अलग अन्दाज में
इनके आंखों में नहीं पलते हैं कल के सपने
आज पर भी नहीं होता है अिख्तयार
एक मुट्ठी भात और दारू
पता नहीं कितनी खुशी दे जाती है
दिन भर भूख से कुहकुहाती है पेट
आज कर्मपीठो बनाया
मिलाकर आंटा और गुड़
इतनी सी बात खुशी के लिए प्रर्याप्त है
चान्दनी रातों में उन्मुक्त नाचती लड़कियां
और मनरे को थाप लगाता
उद्धत युवक
कोई बांसुरी से छेड़ता है अपना सा राग
सबकुछ जैसे आनन्द के अतिरेक सा.
नैसगिZक
उन्मत्त होते है ये
अस्तित्व के साथ गाना
वृक्षों के साथ नाचना
वषाZ के साथ मग्न होना
नदियों के साथ हंसना
यही है इनकी जिन्दगी
दूर बैठे ईश्वर
साथ साथ मैं
सोच रहा
जिन्दगी मात खा जाती है
सौतारों से...........

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