मैं आग लगाना चाहता हूं।
बिना तिली बिना पेट्रोल
अपने पराये सबके अन्दर
दबी आग को भड़काना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।
जाति-धर्म और देश प्रदेश
इन शब्दों के जालों को
मैं अब जलाना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।
राम-रहीम और जेहाद
नक्सलबाद और आतंकवाद
बुर्जुआ, सर्वहारा की साम्यवाद
सम्पूर्ण क्रान्ति की समाजवाद
सब शब्दों के है मकड़जाल
इन सब को मैं राख बनाना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।
मन्दिर तोड़ो
मिस्जद तोड़ों
तोड़ों गिरजाघर, गुरूद्वारा
कहीं नहीं भगवान मिलेगें
इन तकोेZ कें जालों में
कलयुग के शैतान मिलेगें
इन नक्कारों में मैं सबकों
यह बतलाना चाहता हूं।
मैं आग लगाना चाहता हूं।
जैसे आये थे धरा पर
नंग-धड़ग और शुन्य लिए
अपने सृष्टा कें शरणों में
वैसे ही जाना चाहता हूं
मैं सब जलाना चाहता हूं.............
आक्रोश लिये हुए अच्छी रचना । आभार
जवाब देंहटाएंगुलमोहर का फूल