मंगलवार, 30 सितंबर 2025

दुर्गापाठ ..

दुर्गापाठ

1
बेटी के जन्म पर जिसका परिवार रोता है,
 उसके घर भी आजकल दुर्गा पाठ होता है!


2
कोख में बेटी को जो मार कर आता है,
सुना है आज उसके घर भी नवराता है!
3
दहेज के लोभ में जो बेटियों को जलाता है,
वह भी अपने घर कन्या पूजन कराता है!
4
देहरी से निकलते ही बेटियों पर जो लांछन लगाता है,
वही समाज दुर्गा पूजा का भव्य स्वांग भी रचाता है!

रविवार, 7 सितंबर 2025

गुस्सा

गुस्सा

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

साथी क बकलोल वचन

साथी के बकलोल वचन 
**
जो शिक्षक 
लोगों के द्वारा 
शिक्षकों का सम्मान 
अब नहीं करने की बात 
सबको बताते हैं, 
**
वहीं, 
शिक्षक दिवस पर 
केक काट 
"चुम्मा मांगे मस्टरवा"
गाना पर 
बच्चों संग ठुमके लगाते हैं...

मन

मन 
**
कभी-कभी
पढ़ते-पढ़ते
लिखने लगता हूँ,

और कभी-कभी
लिखते-लिखते
पढ़ने लगता हूँ।
अजीब हूँ मैं भी,
करना क्या होता है,
और करने क्या लगता हूँ।

सोमवार, 1 सितंबर 2025

प्रेम और अप्रेम

प्रेम और अप्रेम

पूरी दुनिया
आसमाँ भर प्रेम
माँग रही है,
और इधर,
कोई बस चुटकी भर
प्रेम बाँट रहा है…

आज राह चलते मिले प्रेम की एक तस्वीर

शनिवार, 2 अगस्त 2025

थूक दिया

थूक दिया  

उसने सीना चौड़ा किया,
सिर उठाया,
और आकाश की ओर
आँखें तरेर कर देखा।
फिर... थूक दिया।
अगले ही पल
वह अपने ही चेहरे से
अपना थूका
साफ कर रहा था।
बस। 



शनिवार, 26 जुलाई 2025

प्रेम और परछाई

 प्रेम और परछाई
अरुण साथी


उसने कहा —
अब घटता जा रहा है
तुम्हारा प्रेम,

वैसे ही जैसे
दोपहरी को बढ़ाते सूरज के
साथ-साथ घटती जाती है
परछाई।

मैंने कहा —
तपती दोपहरी में
देह और परछाई का
एकाकार ही तो प्रेम है...
बस।
 प्रेम और परछाई
अरुण साथी

उसने कहा —
अब घटता जा रहा है
तुम्हारा प्रेम,

वैसे ही जैसे
दोपहरी को बढ़ाते सूरज के
साथ-साथ घटती जाती है
परछाई।

मैंने कहा —
तपती दोपहरी में
देह और परछाई का
एकाकार ही तो प्रेम है...
बस।

सोमवार, 9 जून 2025

कब्र में आदमी

कब्र में आदमी

ज़िंदगी की खोई धड़कनों की तलाश
अचानक ही बैठे-बैठे मन के किसी 
चुप कोने से एक हूक उठी


कितने दिन हो गए... 
कोई कविता नहीं लिखी, 
ना रंगों से कोई चित्र रचा। 

ग़ज़ल की कोई धीमी सरगम 
कानों तक नहीं आई, 
किसी सिनेमा में खुद को खोया नहीं।


कई दिनों से बिना वजह 
कुछ गुनगुनाया नहीं, 
आईने में झांककर मुस्कुराया भी नहीं।


ना किसी जिगरी को छेड़ा हौले से, 
ना किसी उदास चेहरे को हंसाया अपने ढंग से।

किसी अच्छी किताब के पन्नों में डूबा भी नहीं, 
उसे पढ़ते-पढ़ते जम्हाई भी नहीं ली,
ऐसा भी अरसा बीत गया।

किसी उड़ती चिड़ी को या 
किसी मुस्कुराते फूल को 
कैमरे में कैद भी तो नहीं किया...

जीवन को बस ढोते रहे हैं... 
जीते नहीं..

चलते रहे हैं यूं ही, 
जैसे कोई आदमी कब्र में चल रहा हो
धीरे, चुपचाप, बिना धड़कन, बिना मक़सद.

सोमवार, 27 जनवरी 2025

पाप–पुण्य

पाप पुण्य 

(अरुण साथी)

गंगा में डुबकी लगा 

नहीं चाहता हूं धो लेना 

अपने हिस्से के पाप को


बजा के घंटी, लगा के टीका 

कम भी नहीं करना चाहता हूं उसे


चाहता हूं अपने हिस्से का पाप 

वैसे ही अपने पास रहे 

जैसे रहता है पुण्य 


फिर चाहता हूं 

चुटकी चुटकी 

पुण्य को जोड़ता रहूं 


और चाहता हूं, अंत में जब 

हिसाब किताब हो तो 

अपने पुण्य का पलड़ा

एक छटांक से ही सही 

भारी हो जाए, बस...