शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

धुंआ उठता है..



आंसू मेरे बहे 
भींगे उनके नयन
दर्द मुझकों मिला 
सजी उनकी गजल

न चिंगारी उठी
न आग लगी
फिर भी
जलन है
तपन है
और धुंआ भी उठता है

देखिए
बड़ी नफाशत से
साथी के जिंदगी का
शहर जलता है......

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

साथी के बकलोल वचन


कुछ
श्रमजीवी मीडिया मजदूर
धन-तरस कहलाते है

इसलिए
धनतेरस पे
खाली हाथ  घर जाते है
बीबी की डांट खाते है
और
बेचारे दांत ही दिखाते है

कल से फिर
छाती तान
काम पे लग जाते है..

(श्रमजीवी को समर्पित । बेशर्म जीवी के तो जत्ते कह्भो ओत्ते कम पडतो..)











Arun sathi