बुधवार, 15 दिसंबर 2010

मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता

मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।


समाज के विभ्रन्स आईने में
संवार कर अपना चेहरा,
तज कर अपना अस्तित्व
पहनना समाजिक मुखौटा,
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।

मैं नहीं प्रस्तुत कर सकता
खुद को खुली किताब की तरह,
जिसमें है कई स्याह पन्ने
और कहीं कहीं धृणा
और दम्भ से लिखी गई इबारत।
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।

मैं रोज सुबह उठकर
नहीं दे सकता बांग,
उनके बीच जो करना चाहतें हैं
मेरा जिबह।
काले लिबास मे लिपटे
समाजिक न्यायाधिशों के कठघरे में
साष्टांग लेट
मैं नहीं कर सकता जिरह।


मैं आदमी हूं
आदमी ही रहने दो भला मत बनाओ.

प्रेम....काव्य-(कारण)


पूछा दोस्तों ने मुझसे
क्यों प्रेम किया तुमसे

मैने कहा पता नहीं

सभी ने पूछा
पर मां

वो समझती थी केवल
तुम्हारे घरवाले ने कहा
सारी बुराइयों है मुझमें

कारण सभी जानना चाहतें है
किसे पता है

प्रेम में कारण नहीं होता!

रविवार, 12 दिसंबर 2010

पुरानी फाइलों को उलटते कलटते पांच साल पूर्व कागज के टुकड़ों पर लिखे दिल की बात के कुछ पन्ने मिल गए, सोंचा आपसे सांझा कर लूं, पेश है-

इसे संयोग कहे या दुर्योग, आज दो वाक्या एक सा घटी। प्रथम हिंन्दी दैनक ‘‘आज’’ में मेरे द्वारा गेसिंग (जुआ) के अवैध धंधे से संबन्धित समाचार जिसमें हमने बरबीघा नगर पंचायत के प्रतिनिधियों का इस धंधें में संलिप्त रहने की बात उजागर की थी, को लेकर नगर पंचायत अध्यक्ष अजय कुमार द्वारा तिव्र प्रतिरोध दर्ज किया गया और मुकदमा करने से लेकर पत्रकारिता की सीमाओं (उनके द्वारा व्यवस्था का विरोध न करना ही पत्रकारिता है) का ज्ञान भी कराया गया। मैं भी भीर गया बहस हुई।

दूसरा वाकया साहित्यिक पत्रिका पुनर्नावा में हिंदी जगत के प्रमुख हस्ताक्षर और कवि-पत्रकार स्व. नरेन्द्र मोहन की कविता पढ़ी जो निम्नवत थी.....

एक सवाल
जो मेरा मन मुझसे
नित्य पूछता
मुझे ही
जांचता, परखता

वह है-
विवशताओं से बंधी
लट्टू सी धूमती यह बंजर
जिंदगी
है किस काम की?
-यह जिंदगी

कठपुतली?


बहुत देर तक मौन सोचता रहा। कठपुतली? मानवेत्तर गुणों में हो रे चातुर्दिक गिरावट क्या इस बात का द्योतक नहीं कि आज के समाज में जिवित आदमी के लिए स्थान नहीं। सच, विवशताओं में बंधी हर आदमी की जिन्दगी एक बंजर जमीन है। तब प्रश्न यह भी अनुत्तरित रह जाती है कि बंजर जिंदगी भला है किस काम की?

फिर एक और कविता कवि शिवओम अंबर की पढ़ी

अपमानित होकर के भी मुसकाना पड़ता है,
इस वस्ती में राजहंस के वंशज को यारों
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

स्याह सियासत लिखती है
खाते संधर्षों के,
कोना फटा लिए मिलते हैं
खत आदर्शो के।

सबकुछ जान बूझ कर चुप रज जाना पड़ता है
इस वस्ती में विवश बृहस्पति की मृगछाला को
इन्द्रासन से तालमेल बैठाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

जुगनू सूरज को प्रकाश का अर्थ बताते है,
यहां दिग्भ्रमित, पंथ-प्रदर्शक माने जाते है।
हर जुलूस में जैकारा बुलवाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

इस वस्ती में उंचाई मिलती तो है लेकिन
खुद अपनी नजरों में ही गिर जाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।

और फिर उठखड़ा हुआ मैं सतत अपनी चाल में चलने के लिए..... सफर अभी जारी है।

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है

कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है।
तन्हाई के सफर में भी कारवां क्यूं है।

कभी तो खामोशी की जुवां को समझो साथी,
क्यों पूछते हो, यह अपनों के दरम्यां क्यूं है।

दुनियादार तुम भी नहीं हो मेरी तरह शायद,
तभी तो कहते हो कि जुल्म की इम्तहां क्यूं है।

यह नासमझी नहीं तो और क्या है,
कि जिस चमन में माली नहीं, और पूछते हो यह विरां क्यूं है।

शीशा-ऐ-दिल से दिल्लगी है उनकी फितरत,
गाफील तुम, पूछते हो संगदिल बेवफा क्यूं है।

इस काली अंधेरी रात में साथी चराग बन,
शीश-महलों को देख डोलता तेरा भी इमां क्यूं है।

कभी तो अपनी गुस्ताखियां देखों साथी,
की अब बन्दे भी यहॉ खुदा क्यूं है।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

नेतवा सब भरमाबो है. (मगही कविता)

अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है.
गली गली जे दारू बेचे, ओकरे खूब जीताबो है.

पहले हलथिन रंगबाज
फिर कहलैलथिन ठेकेदार
अब हो गेलथिन एमएलए
जनसेवका के सब हंसी उडाबो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है.


सूट बूट है उजर बगबग
स्कारपीयों  करो है जगमग
टूटल साईकिल से ई लगदग
कहां से, कोय नै ई बतावो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है.



अनपढ़ हो गेलइ हे मास्टर
गोबरठोकनी हो गेलइ हे सिस्टर
बड़का बाप के बेटा हे डागडर
फर्जी डिग्री के फेरा में
ग्रेजुएट भैंस चराबो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है


कभी मण्डल
कभी कमण्डल
कभी राम और
कभी रहीम
आग लगाके नेतवन सब
घर बैठल मौज उड़ावो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है


की कुशासन
की सुशासन
गरीबन झोपड़ी नै राशन
चपरासी से अफसर तक
सभे महल बनाबो है।
अब तो नेतवा सब जनता के देखा खूब भरमाबो है



लोकतन्त्र में
कागवंश के
राजहंश सब
बिरदावली अब गावो है

चौथोखंभा भी रंगले सीयरा संग 
हुआ हुआ चिल्लाबो है
हुआ हुआ चिल्लावो है..........