दूसरा वाकया साहित्यिक पत्रिका पुनर्नावा में हिंदी जगत के प्रमुख हस्ताक्षर और कवि-पत्रकार स्व. नरेन्द्र मोहन की कविता पढ़ी जो निम्नवत थी.....
एक सवाल
जो मेरा मन मुझसे
नित्य पूछता
मुझे ही
जांचता, परखता
वह है-
विवशताओं से बंधी
लट्टू सी धूमती यह बंजर
जिंदगी
है किस काम की?
-यह जिंदगी
कठपुतली?
बहुत देर तक मौन सोचता रहा। कठपुतली? मानवेत्तर गुणों में हो रे चातुर्दिक गिरावट क्या इस बात का द्योतक नहीं कि आज के समाज में जिवित आदमी के लिए स्थान नहीं। सच, विवशताओं में बंधी हर आदमी की जिन्दगी एक बंजर जमीन है। तब प्रश्न यह भी अनुत्तरित रह जाती है कि बंजर जिंदगी भला है किस काम की?
फिर एक और कविता कवि शिवओम अंबर की पढ़ी
अपमानित होकर के भी मुसकाना पड़ता है,
इस वस्ती में राजहंस के वंशज को यारों
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।
स्याह सियासत लिखती है
खाते संधर्षों के,
कोना फटा लिए मिलते हैं
खत आदर्शो के।
सबकुछ जान बूझ कर चुप रज जाना पड़ता है
इस वस्ती में विवश बृहस्पति की मृगछाला को
इन्द्रासन से तालमेल बैठाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।
जुगनू सूरज को प्रकाश का अर्थ बताते है,
यहां दिग्भ्रमित, पंथ-प्रदर्शक माने जाते है।
हर जुलूस में जैकारा बुलवाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।
इस वस्ती में उंचाई मिलती तो है लेकिन
खुद अपनी नजरों में ही गिर जाना पड़ता है।
काकवंश की प्रशस्तियों को गाना पड़ता है।
और फिर उठखड़ा हुआ मैं सतत अपनी चाल में चलने के लिए..... सफर अभी जारी है।
बहुत खूबसूरत कविता .सुन्दर अहसास.....बधाई.
जवाब देंहटाएं'सप्तरंगी प्रेम' के लिए आपकी प्रेम आधारित रचनाओं का स्वागत है.
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bahut sunder.
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