मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

सोंचा न था

वाकिफ तो था तुम्हारी फितरत से।
वेबजह वेवफा होगे, सोंचा न था।।

ऐतवार न था फिर भी ताउम्र इंतजार किया।
मैयत पे भी मेरी न आओगे, सोंचा न था।।


शनिवार, 21 दिसंबर 2013

गिद्ध

आज कल घरती पर गिद्ध
हर जगह रहते है..

आज ही तो
आइसक्रीम बेच रहे नन्हें चुहवा पर
चलाया था चान्गुर
गाल पर पंजे का निशान उग आये
बक्क!
आंखों में भर आया
लाल लहू ...

कल ही रेलगाड़ी में भुंजा बेच रहे मल्हूआ पर
खाकी गिद्ध ने मारा झपट्टा
बचने के प्रयास में आ गया वह पहिये के नीचे
सैकड़ों हिस्सों में बंट गया मल्हूआ..

गिद्धों के हिस्से आया एक एक टुकड़ा..

अब तो हर जगह दिखाई देते है गिद्ध

कहीं भगवा, कहीं सेकुलर
तो कहीं जेहादी बन कर
टांग देते है कथित धर्म की धोती
अपने ही बहन-.बेटी के माथे पर
और फिर नोच लेते है उसकी देह
भूखे गिद्धों की तरह...

गांव से लेकर शहर तक पाये जाते है
गिद्ध....

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

बराक ओबामा ने बीबी के डर से सिगरेट पीना छोडा़। ई समाचार पर भोरे भोरे ए गो निम्मन, हंसाबे बाला, मगही कविता...तनि मुस्कुरा के पढ़िया..

जहिना से ओबामा के
अपन मलकीनी से डरे
बाला बात
हमर मलकीनी जनलको हें
तहिना से
रोज हमरा से
लडे़ ले ठनलको हें..

ओलहन सुन सुन के
जब थक गेलियो
हमहूं एक दिन बक देलियो

डारलिंग,
ओबामा तो मलकीनी के डर से
सिरिफ सिगरेट छोड़लको है
तोर हसबेंड तो अपन्न दिल
तोड़लको हैं....
जबसे तों काली माय जीवन में अइला हें
कत्ते फुलझड़िया के ई छोड़लकों हें...

डारलिंग
हमहूं तोरा से बहुते डरो हियो
ईहे से तो
सिरिफ औ सिरिफ
तोरे से प्रेम करो हियो....
-------------------------------

(नोट-
ई कविता जब से हमर कन्याय पढ़लको हें
तहिना से घर में अलगे महाभारत ठनलका हें)

रविवार, 22 सितंबर 2013

रामधारी सिंह "दिनकर" को जन्म दिन पर नमन....

दिल्ली(कविता)  रामधारी सिंह "दिनकर"


यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिर की इस गगन में,
कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में?

मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!

इस उजाड़ निर्जन खंडहर में, छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में
तुझे रूप सजाने की सूझी,इस सत्यानाश प्रहर में!

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया - तराना,
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना.

हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इन पर नमक हाय, छिड़कना!

महल कहां बस, हमें सहारा,केवल फूस-फास, तॄणदल का;
अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का, गम, आँसू या गंगाजल का.

बुधवार, 11 सितंबर 2013

राम की जगह रोटी दे दो..

1
राम की जगह रोटी दे दो, कोई भूखे का भगवान् नहीं होता.
रहीम के बंदों बगैर मुसलम इमां, कोई मुसलमान नहीं होता..

2
पांचों वक्त नमाज पढ़ों या जाओ चारो धाम।

लहू सना हाथ देख रो देगें, अल्ला हो या राम।।


अरुण साथी

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

लैंपपोस्ट

तुफानों की घिरी जिंदगी
डूबती-उतरती रहती है..

कभी सतह पर
तलाशती है कोई
तिनका..

कभी
तलाशती है उसे
जो खोया ही नहीं...

कभी भरकर
मुठ्ठी में रेत
मचल जाती है...

कभी तलाशती है
स्याह
रातों की
सलवटें..

तभी दूर कहीं एक
लैंपपोस्ट
कहती हो जैसे
तुम भी क्यों ने बन जाते हो
मेरी तरह
.
थरथराती हुई सी सही
मेरी रौशनी किसी को
राह तो दिखाती है..
किसी को किनारा तो
बताती है...


सोमवार, 26 अगस्त 2013

सुबह सुबह की थोड़ी चुहलबाजी.... इरशाद कहिए..

1
वोट बैंक
*****
सोनिया मैडम लेकर आई रोटी
मोदी कहते राम नाम की फेरो माला
कहत साथी सुने भाई मतबाला
भूखे भजन न होई गोपाला...

2
रिस्क
****

कोई राम तो कोई रहीम के नाम पे
कर रहा है मैच को फिक्स
गरीबी, बेकारी, मंहगाई को छूने में
है बड़ा ही रिस्क...

3
रेलमपेल
******

नीतीश जी के राज में हो गेलो दारू के रेलमपेल
बड़का औ छोटका सब कलाली में कर रहलो है ठेलढकेल।

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

नेता जी उवाच-नाच जमूरे नाच

चुनाव आते ही नेता धर्म की डुगडुगी बजा रहंे हैं।
जमूरे की तरह हमको अपने ईशारे पर नचा रहें हैं।

कहीं टोपी पहन, हमको ही टोपी पहना रहें हैं।
तो कहीं रोटी की जगह शंख फुकबा रहें हैं।

मंहगाई, भूख और भ्रष्टाचार हमसब भूल जा रहें है।
लोमड़ी बन नेता हमारी रोटियों छीन कर खा रहंे हैं।।

बांटो और राज करो का ब्रिटिश फॉर्मुला नेता आजमा रहें है।
गांधी, भगत सिंह और नेताजी की कुर्बानियों को हम भूल जा रहें है।।





शनिवार, 3 अगस्त 2013

फ्रेंडशिप डे

फेसबुक फ्रेंड का इतना सा बास्ता है।
कॉमेंट गिव एण्ड टेक का यह सिंपल सा रास्ता है।।

फेसबुक की ही तरह अब दोस्ती भी मॉडर्न हो गई।
दुख-दर्द में साथ देने का अब चलन ही खो गई।।

फेसबुक फ्रेंड भी अजब गजब होते है।
लड़की के चेहरे में छुपकर लड़के मौज लेते है।।

फेसबुक को कुछ ने मौज मस्ती का साधन बनाया है।
इसलिए अपने शादी शुदा होने की बात को छुपाया है।।

फेसबुक पर कुछ तो कृष्ण-सुदामा की तरह होते है।
कुछ अपनी विलुप्त जमींदारी को यहां भी ढोते है।।

फेसबुक का यह भी आज हो रहा है कमाल।
सात समुंद्र पार से अपने गांव का ले रहा है हालचाल।।


गुरुवार, 1 अगस्त 2013

किसान की छाती

धरती की छाती पर बुन आया है किसान
अपने बेटी के ब्याह की उम्मीद..
उगा आया है खेत में
कुछ रूपये
मालिक के मूंह पर मारने को
जिससे दरबाजे पर चढ़
मालिक रोज बेटी-रोटी करता है...

और इस साल भी
पैरों में फटी बियाई की तरह
फटे खेत को देख
फट रहा है किसान का कलेजा..

अगले साल फिर से
खेतों बोयेगा किसान
एक उम्मीद
एक सपने
और एक नई जिंदगी की आश

सोंचों
घरती की छाती चौड़ी होती है
या कि किसान का.....





सोमवार, 15 जुलाई 2013

भूख, बिल्ली और नेता..


अब कलावती के घर 
बिल्ली भी नहीं आती
समझती है वह 
कई दिनों से खामोश चुल्हे 
और भूख से बिलखते बच्चों का दर्द

पर हे जनतंत्र के कर्णधारों
इतनी छोटी से बात 
तुम क्यों नहीं समझते?

क्यों रोटी की जगह 
धर्म का अफीम देकर
सुला देना चाहते हो हमें
भूखे पेट 
बारबार, लगातार....


शुक्रवार, 31 मई 2013

आंख में पानी नहीं रहा (गजल)


इस दौर में आदमी के आंख में पानी नहीं रहा।
आदमी है, आदमीयत की निशानी नहीं रहा।।

सज गए है घर-गली कागज के फूल से।
बाजार की खुश्बू का असर रूहानी नहीं रहा।।

आप तो मोहब्बत भी करते है सौदे की तरह तौल कर।
अब तो मोहब्बत में लौला-मजनूं की रूमानी नहीं रहा।।

शुक्रवार, 3 मई 2013

घृणा



उस दिन
कथित अधार्मिक 
मठाधीश को
अपदस्त कर 
गांव में जश्न मना
तो मैं भी बहुत खुश हुआ....

चलकर देखने गया
अपनी खुशी

नये मठाधीश
पुर्व में लिखे नाम वाले
शिलापट्टों को तोड़ रहे थे....

पता नहीं क्यों?
इस घृणा को देख
मैं फिर उदास हो गया.....



बुधवार, 17 अप्रैल 2013

देशबा के हाल ( मगही कविता)


(तनि अपन बोली, तनि अपन भाषा। आय सांझ एगो मगही कविता के मन होलै से लिख दिलिऐ। मुदा अपने सबके कैसन लगलै बतैथिन।)

देशबा के हाल
देशबा के हाल भौजी निराला हो गेलो।
लूटेरबा सब हिंया रखबाला हो गेलो।।
देशबा के हाल भौजी निराला हो गेलो।

भूखल मरो हो हरजोतबा किसान।
औ लूटेरबन के रूपैये निबाला हो गेलो।।
देशबा के हाल भौजी निराला हो गेलो।

मांग हलो भोट जे हाथ जोर जोर।
एमएलए बनते मुंहझौंसा मतबाला हो गेलो।।
देशबा के हाल भौजी निराला हो गेलो।

गरीबको के बेटबा जब बनो है एसपी कलेकटर।
ओकरो ले रूपैये शिवाला हो गेलो।।
देशबा के हाल भौजी निराला हो गेलो।



शनिवार, 16 मार्च 2013

शिखर.....(काव्य)


शिखर पर पहुंचना बहुत मुश्किल नहीं है।
साहस
धैर्य
निरन्तर प्रयास
और जुनून हो
तो हर कोई पहुंच सकता है..

मुश्किल है शिखर पर टिक पाना !
अहं
घृणा
विवेक शून्यता की पराकष्ठा से
गिर पड़ता है
शिखर पर पहुंचा हुआ
``आदमी´´
और  टूट का बिखर जाता है.....

सोमवार, 11 मार्च 2013

फेसबुक पर दिल्लगी के कुछ बिखरे हुए टुकड़े


क्या कहूं कैसी हो तुम
बिल्कुल चांद की जैसी हो तुम....

(अभी अभी एक अतिसुंदरी की तस्वीर देख कर बेईमान मन ने शरारत की है....)

मैंने शुरूआत की और फिर जबाब/सवाल/जबाब का दौर चल निकला.


उड़ गई नींद मेरी रातों की

तेरा कैसा सवाल था साथी..



चली जाओगी बेशक मेरी ज़िन्दगी से
 मगर इस दिल से कैसे जाओगी,,,

मोहब्बत ए मरीज का दिल में रहना ही खुशनसीबी है
गौर क्या जाने दर्द, धड़कनों की सदा तुम तो सुनोगे..

वो इस चाह मेँ रहते हैँ कि हम उनको ^ उनसे माँगेँ और
हम इस गुरुर मेँ रहते हैँ कि... हम अपनी ही चीज क्यूँ माँगेँ !!!

गुरूर तो मुझको भी तेरी मोहब्बत का
खो कर भी तुझे, तेरे साथ जीये जा रहा हूं

हमने तेरे बाद न रखी किसी से महोब्बत की आस,
एक शक्स ही बहुत था जो सब कुछ सिखा गया..!!!

इक मोहब्बत ही काफी है जिन्दगी के सफर में
तुमसे फरेब क्या खाया, मुझको भी जीना आ गया..

इश्क वो खेल नहीं जो छोटे दिल वाले खेलें,
रूह तक काँप जाती है, सदमे सहते-सहते..!!!

इश्क तो रूहानी होती है, गफलत न हो
सदमो में जीना सीख जाता है रहते रहते..

सदा है मदन बाबू पहूंच ही जाएगी
अभी चली गई है तो वह लौट कर भी आएगी..


2

‘‘आज रात निंद नहीं आ रही
और कमबख्त मैं सोना भी नहीं चाहता’’

तुम जाग रहे हो मुझको अच्छा नहीं लगता
चुपके से मेरी निंदा चुरा क्यों नहीं लेते..


3

बड़े नामुराद हो, कयामत की बात करते हो

एक मैं हूं की कयामत से भी मोहब्बत कर बैठा..


रविवार, 10 मार्च 2013

अधजली लड़की


कल महाशिवरात्री के दिन ही सृष्टी की रचना करने वाली एक बेटी ने इहलीला समाप्त कर ली। वह भी एक सैतेली मां की प्रताड़ना से आजीज होकर। या मामला प्रेम प्रसंग का भी हो सकता है, छानबीन कर रहा हूं। इससे पूर्व वह अपनी शिकायत लेकर थाना गई थी पर वहां से उसे भगा दिया गया।
शेखपुरा जिले के बरबीघा रेफरल अस्पताल के बेड पर वह कराह रही थी और मेरे आंखों से आंसू बह चले। अविरल। अस्पताल कर्मी अर्जुन लाल की बीस वर्षिय पुत्री नैना ने अभी जिंदगी की दहलीज पर कदम ही रखा था ओह...
(आंसू के साथ साथ ये शब्द भी छलक पड़े...)

कैसे निर्वस्त्र पड़ी थी
वह अधजली लड़की
कराहती हुई
रोकने की कोशीश
बेकार कर 
बह चला आंखों का समुंद्र
ओह
आखिर कब तक
जलती रहेगी 
बेटियां?

हे ईश्वर
तुम भी मुझे 
अपनी ही तरह
पत्थर का बना क्यूं नहीं देते....

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

गुमराह






















जिंदगी जी जाती है अपने हिसाब है।
गुमराह लोग जीते है नजरे किताब से।।

सोहबत से जान जाओगे फितरत सभी का।
एक दिन झांक ही लेगा चेहरा नक़ाब से।।

शाकी को क्यों ढूढ़ते हो मयखाने में साथी।
रहती है यह संगदिल हसीनों के हिजाब में।।



चित्र गूगल से साभार

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

धुंआं-धुंआं


झुग्गी-झोपड़ियों से
निकलते धुंऐं को कभी
मौन होकर देखना...

उसमें कुछ तस्वीर
नजर आऐगी..
जो आपसे
बोलेगी, बतियायेगी....

पूछेगी एक सवाल
आखिर यहां भी तो रहते हैं
तुम्हारी तरह ही
हाड़-मांस के लोग

फिर क्यों रोज
इनके घरों से मैं नहीं निकलता?

फिर क्यों दोनों सांझ
इनका चुल्हा नहीं जलता.....?


गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कत्ल करने का बहाना चाहिए (साथी के बोल बच्चन)


अब जहां में कत्ल करने का बस बहाना चाहिए।
दौर ऐसा है साथी तो, मोहब्बत को भी आजमाना चाहिए।।

यूं तो एक नजर में जान जाओगे कि जानवर शैतान है।
पर आदमी को जानने के लिए एक जमाना चाहिए।।

ऐसा नहीं की बसते हैं मुर्दे ही मेरे गांव में।
है उनमें भी आग, यह उनको बताना चाहिए।।

हैं फरेबी वो, दे गए धोखा हमें।
पर जानने को जिंदगी, धोखा भी खाना चाहिए।।

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

बुरा लगता है (पाक के नापाक कदम पर ‘‘साथी’’ का दर्द)


जान कर भी बनते हो अनजान, बुरा लगता है।
फितरत से जुदा हो उनमान, बुरा लगता है।।

यूं तो कातिले-कौम हो तुम।
कहलाते हो इंसान, बुरा लगता है।।

बनकर रकीब पीठ में भोंक दो खंजर।
दोस्त बन कर देते हो यही अंजाम, बुरा लगता है।।

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

आइए कविवर अदम गोंडकी की इन कविताओं के माध्यम से वर्तमान को देखें...

1
जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये
मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.
2
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं" 
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल" 
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !