सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

प्रजापति दक्ष।

प्रजापति दक्ष।

अहं
घृणा
हठ
सामाजिक मर्यादा
और खानदान
इन मान्यताओं में आज भी ज़िन्दा है
प्रजापति दक्ष।

आज भी हो रहा है महायज्ञ,
अयोजन होता है जिसका
अपने अहं की तुष्टी
या फिर
किसी को हीनता का एहसास कराने के लिए।

आज भी यज्ञ कुण्ड में भष्म हो  रही है
अपमानित सती।

आज भी है मां विवश, लाचार
कुचला जा रहा है ममत्व।

हे महादेव
हे नटराज
आज क्यों हो तुम दूर
सर्द कैलाश की चोटी पर
शान्त
निश्चल
ध्यानस्थ।

कहां खो गया तुम्हारा
रौद्ररूप। 

क्यों नहीं करते तुम फिर से
प्रलयंकारी ताण्डव।

क्या समय की सिलवटों से ढक गया है
तुम्हारा त्रिनेत्र,
या फिर
तुम ने भी हमारी तरह
प्ररिस्थितियों से समझौता करना सीख  लिया....

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

क्षणिकाऐं

क्षणिकाऐं
1
साक्षेदारी

साक्षेदारी
नहीं करने में समझदारी

2
मोहब्बत

मोहब्बत
बस मिल जाये सोहबत
यही है आधुनिक मोहब्बत।

3
आधुनिक प्रेम

आधुनिक प्रेम
रात भर के लिए प्रेमिका
फिट करने का फ्रेम।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

सौतार (आदिवासी)

मनरे की थापों पर थिरकती
पांवो के साथ साथ थिरकती है
जिन्दगी
ठप ठप ....
जिन्दगी मिलती है यहां अलग अन्दाज में
इनके आंखों में नहीं पलते हैं कल के सपने
आज पर भी नहीं होता है अिख्तयार
एक मुट्ठी भात और दारू
पता नहीं कितनी खुशी दे जाती है
दिन भर भूख से कुहकुहाती है पेट
आज कर्मपीठो बनाया
मिलाकर आंटा और गुड़
इतनी सी बात खुशी के लिए प्रर्याप्त है
चान्दनी रातों में उन्मुक्त नाचती लड़कियां
और मनरे को थाप लगाता
उद्धत युवक
कोई बांसुरी से छेड़ता है अपना सा राग
सबकुछ जैसे आनन्द के अतिरेक सा.
नैसगिZक
उन्मत्त होते है ये
अस्तित्व के साथ गाना
वृक्षों के साथ नाचना
वषाZ के साथ मग्न होना
नदियों के साथ हंसना
यही है इनकी जिन्दगी
दूर बैठे ईश्वर
साथ साथ मैं
सोच रहा
जिन्दगी मात खा जाती है
सौतारों से...........

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

मैं कवि नहीं हूं।

मैं कवि नहीं हूं।
मेरे पास नहीं है
सारगभिZत शब्दों का कोष
मैं नहीं जानता
व्याकरण की व्याख्या
न ही मैं कर सकता
समायोजन
भाव और शब्द में।

फिर भी
मैं लिखता हूं
कविता
क्योंकि
जीवित मेरी संवेदना

मुझे उद्वेलित करते हैं
सामाजिक विसंगतियों के संजाल,
मैं बह जाता हूं
अपनी भावनाओं के साथ
और
मेरी लेखनी उगल देती है कुछ व्याकुल शब्द.........

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

परछाई



परछाई
कभी कभी अपनी परछाई से डर जाता हूं
जब जेठ की दोपहर में
जलने लगता है मन
तब लगता है अपनी ही परछाई
प्रेत बन कर मुझे लीलना चाहती है।

जब कहीं अन्त: के कुरूक्षेत्र में
अपने ही पापों से लड़ने की बजती है
दुन्दुभी
तब युद्ध से पहले ही
मेरी प्रागल्भयता कर देती है
आत्मसमर्पण।

संध्या जब मुझसे बड़ी हो जाती है
मेरी परछाई
तो लगता है मैं अपनी ही हार का
मना रहा हूं जश्न।

और फिर
आती है रात
समेट लेती है मुझे
अपने आगोश में
तब मेरी परछाई मुझसे पुछती है
मेरे होने का शबब......

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

पिता



संघषोंZ के विभिन्न आयामों में

कोई प्रेरित करता है

चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए

चोट खा कर गिरे अस्तित्व को

सम्भालाता है

धीरे से पकड़ाता है अपनी अंगुली

सिखलाता है चलना

नई राहों पर

और फिर

जब दौड़ पड़ता हूं

तो बादलों की ओट से मुस्कुराता है.....

देह बेच देती तो कितना कमाती... (काव्य)



यह रचना मैंने झाझा के आदिवासी ईलाके में कई दिन बिताने के बाद लिखी थी आपके लिए हाजिर है।

रोज निकलती है यहां जिन्दगी
पहाड़ों की ओट से,
चुपके से आकर  भूख
फिर से दे जाती है दस्तक,
डंगरा डंगरी को खदेड़
जंगल में,
सोंचती है
पेट की बात।

ककटा लेकर हाथ में जाती है जंगल,
दोपहर तक काटती है भूख
दातुन की शक्ल में,

माथे पर जे जाती है शहर
मीलों पैदल चलकर
बेचने दन्तमन,
और खरीदने को पहूंच जाते है लोग
उसकी देह.....................
वामुिश्कल बचा कर देह,
कमाई बीस रूपये,
लौटती है गांव,
सोचती हुई कि अगर
देह बेच देती
तो कितना कमाती...............

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

मुझे याद तुम्हारी आई।

जितने फुल चुने थे मैंने
हर पंखुड़ी मुरझाई।
अब तो आओ पिया निर्मोही
मुझे याद तुम्हारी आई।

सावन बीता
फागुन आया
मिलन की आस जगाई
अब तो आओ पिया निर्मोही
मुझे याद तुम्हारी आई।

गुजर गए कितने लम्हें
तेरी यादोें में खोये खोये
मिलती हूं लोगों से हंस कर
दिल हमारा रोये
अब तो आओ पिया निर्मोही
मुझे याद तुम्हारी आई।

होरी में बैरी फगुनाहट
दिल पे छूरी चलाए
अब तो आओ साजन मेरे
यौवन बीता जाये।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

प्रेम

प्रेम

समर्पण का एक अन्तहीन सिलसिला

आशाओं

आकांक्षाओं

और भविष्य के सपनों को तिरोहित कर

पाना एक एहसास

और तलाशना उसी में अपनी जिन्दगी......

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

पाती प्रेम की

पाती प्रेम की

तुम्हारे सौन्दर्यबोध में मैंने बहुत से शब्द ढूंढे़

अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर बारम्बार उकेरा

फिर उसके टुकडे़-टुकड़े किए

हर बार शब्द शर्मा जाते........

फिर इस तरह किया मैंने

अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त

गुलाब की अबोध-नि:शब्द पंखुड़ी को

लिफाफे में बन्द कर तुम्हें भेज दिया......................

प्रेम

प्रेम

जब भी तुम कहीं होती हो,
मुझे कोई बता जाता है।
जब भी कोई फुल मुस्कुराता है
तुम्हारी याद दिला जाता है।
जेठ की दोपहर में
बरगद की छांव तले
बैठा था मैं
कोई बता गया तुम आ रही हो।
तुम रूठ गई हो किसी बात से शायद,
तुम्हारा प्रेम ही तो है रूठना भी कोई कह रहा है।
खलीहान में
धान की बालियों की चुभन ने बताया
तुम यहीं कहीं हो आस पास,
देखा दूर तुम चली आ रही हो।                                                  

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

एहसास

खिला गुलाब प्रियतम कि तुम हंसी हो,
सुबह की चादर के सिलवटों में तुम बसी हो।
सूरज की लालीमा है कि है तेरे अधरों का अक्श,
निशा की कालिमा है कि है तेरे गेसूओं का नक्श। 
अस्ताचलस्त अरूण है कि तेरी निन्द से बोझिल आंखें,
निशा का आगमन है कि तुमने समेट ली अपनी बांहें।
यह हवा की सरगोशी है कि है तुम्हारी हलचल,
तुम्हारी पाजेब खनकी है कि झरनों की है कलकल।
लिपट कर तुम मेरी आगोश में शर्माई
कि मैने लाजवन्ती को छू लिया,
सिमट कर तुम मेरी आगोश में छुपी, 
कि चान्द को बादल में छूपा लिया।
महकी जुही कि तेरी गेसुओं की महक है,
बजी सितार की तेरी चुड़ियों की खनक है।