रविवार, 14 फ़रवरी 2010

परछाई



परछाई
कभी कभी अपनी परछाई से डर जाता हूं
जब जेठ की दोपहर में
जलने लगता है मन
तब लगता है अपनी ही परछाई
प्रेत बन कर मुझे लीलना चाहती है।

जब कहीं अन्त: के कुरूक्षेत्र में
अपने ही पापों से लड़ने की बजती है
दुन्दुभी
तब युद्ध से पहले ही
मेरी प्रागल्भयता कर देती है
आत्मसमर्पण।

संध्या जब मुझसे बड़ी हो जाती है
मेरी परछाई
तो लगता है मैं अपनी ही हार का
मना रहा हूं जश्न।

और फिर
आती है रात
समेट लेती है मुझे
अपने आगोश में
तब मेरी परछाई मुझसे पुछती है
मेरे होने का शबब......

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें