सोमवार, 24 मई 2021

घर-वापसी

दरवाजे खिड़कियां
खुली रखी थी हमेशा
हर कोई आ-जा सकता था
बेरोकटोक
हवाओं की तरह
दृश्य-अदृश्य
स्पृह-अस्पृह
न जाली, न पर्दे, न शीशे
सब कुछ खुला खुला
एक दिन अचानक
मृत्यु ने दस्तक दी
कहा, चलो
चौंक गया
यह क्या
ना शोर, न शराबा
ना विरोध, न प्रतिरोध
यह कैसे
कहा- घर वापसी

20 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना और सद्यः प्रासंगिक। मर्मस्पर्शी।

    सुझाव : रचना वाले पृष्ठ का रंग संयोजन बदल दें तो पढ़ने में ज्यादा आसानी हो सकती है ।

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  2. जी आभार। सुधार कर लिए।

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  3. जिन्दगी इक किराये का घर है,इक न इक दिन बदलना पड़ेगा ।

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  4. छोड़कर सब, वही जाना। मिल गया एक पथ पुराना।

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  5. जब बुलावा आ जाये तो घर लौटना ही पड़ता है,बेहतरीन अभिव्यक्ति ,सादर नमन

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  6. अब तो यही लग रहा कि कब बिना दस्तक के ही आवाज़ आ जायेगी ... आ अब लौट चलें ।
    गहन अभिव्यक्ति ।

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  7. जब दरवाजे-खिड़कियां सब खुली थीं तो दस्तक दिए बिना भी सामने आ खड़ी हो सकती थी

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  8. एक दिन हर एक को यादों की बरात बन जाना है
    इस जियो ऐसे की आज आखिरी दिन है!
    बेहतरीन रचना

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  9. अन्तर्मन को छूती लाजवाब रचना ।

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  10. बड़ी सरलता से जीवन के विरल सच को कह दिया।

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  11. बहुत खूब कविता है...गहन और बहुत कुछ कद दिया आपने सहजता से।

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  12. कहा - घर वापसी
    मृत्यु घर वापसी ही तो है। दुनिया रैन बसेरा !!!
    यह बात जितना जल्दी समझ आ जाए, उतना अच्छा।

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  13. आदरणीय अरूण जी, आपका ब्लॉग चौथाखंभा मेरी रीडिंग लिस्ट में आता है परंतु कुछ तकनीकी गड़बड़ है, मैं उस पर कमेंट नहीं कर पा रही। सादर।

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