अरुण साथी
उसने कहा —
अब घटता जा रहा है
तुम्हारा प्रेम,
वैसे ही जैसे
दोपहरी को बढ़ाते सूरज के
साथ-साथ घटती जाती है
परछाई।
मैंने कहा —
तपती दोपहरी में
देह और परछाई का
एकाकार ही तो प्रेम है...
बस।
प्रेम और परछाईअरुण साथी
उसने कहा —
अब घटता जा रहा है
तुम्हारा प्रेम,
वैसे ही जैसे
दोपहरी को बढ़ाते सूरज के
साथ-साथ घटती जाती है
परछाई।
मैंने कहा —
तपती दोपहरी में
देह और परछाई का
एकाकार ही तो प्रेम है...
बस।
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