मंगलवार, 1 मई 2012

मजदूर..


सर झुकाये
मौन
चुपचाप..
सुन रहा है गालियां..
पूरे दस मिनट देर से काम पर आया है
गुनहगार!
.
.
थक गया है
काम करते-करते
खैनी बनाने के बहाने सुस्ता रहा है,
या फिर मूतने का बनाता है बहाना।

मालिक फिर चिल्लाया..
साले

हरामी

इसी बात की मजदूरी देता हूं....

हमारे घर भी आते हैं ये मजदूर!



(मजदूर दिवस पर एक पुरानी रचना)

10 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक, सामयिक, सुन्दर, बधाई

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  2. मजदूर के साथ सदियों से होता अन्याय शायद ही ख़तम होगा कभी।

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  3. रचना पुरानी है पर दर्द सदाबहार है...!

    यही सच है !

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  4. सटीक व्यंग ! मजदूर दिवस पर मजदूर की सौगात .....

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  5. पढ़े लिखे समाज का एक कड़वा सच ......बहुत खूब

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  6. आपकी पोस्ट 3/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

    चर्चा - 868:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  7. मजदूर की व्यथा को सटीक शब्द दिए हैं आपने....बधाई

    नीरज

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  8. आज के समाज पर बहुत जबरदस्त प्रहार करती रचना |

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  9. मार्मिक ... कडुवे सच कों लिखा है ...

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