कातिल को कातिल कहो, रवायत नहीं है।
फ़क़त मुर्दों से ज़माने को शिकायत नहीं है!!
मुर्दों के शहर में रहकर भी शोर क्यों करते हो,
यह कब्र में सोये हुए बंदों से अदावत नहीं है?
बस्ती है यह चोरों का, जयकारा उसका होगा,
सच कहना क्या इस दौर में कयामत नहीं है?
जब नक्कारखाने में मुनादी है खामोश रहने की,
वैसे में तेरा शोर, "तूती" बनने की कवायद नहीं है?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-09-2016) को "शाब्दिक हिंसा मत करो " (चर्चा अंक-2461) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया ।
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