अब कोई क्यों मुझसे खफा हो।
मैं खुद से ही खफा रहने लगा हूं।।
गैरों से अब शिकवा कैसा।
अपनों का तंज सहने लगा हूं।।
चापलूसों के दौर में सच बोल न दूं कहीं।
इसलिए मैं अक्सर चुप रहने लगा हूं।।
कहता हूं गर मोहब्बत ही है खुदा का मजहब।
वह मुझकों भी काफिर कहने लगा है।।
मैं खुद से ही खफा रहने लगा हूं।।
गैरों से अब शिकवा कैसा।
अपनों का तंज सहने लगा हूं।।
चापलूसों के दौर में सच बोल न दूं कहीं।
इसलिए मैं अक्सर चुप रहने लगा हूं।।
कहता हूं गर मोहब्बत ही है खुदा का मजहब।
वह मुझकों भी काफिर कहने लगा है।।
वाह !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब .. तंज लिए हर शेर .. लाजवाब ...
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय रचना - बधाई
जवाब देंहटाएंआग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
शब्दों की मुस्कुराहट पर ....दिल को छूते शब्द छाप छोड़ती गजलें ऐसी ही एक शख्सियत है