बचपन से ही
मां को लोग
पुकारते आ रहे हैं
‘‘रमचनदरपुरवली’’
या
सहदेवा के ‘‘कन्याय’’
बाबूजी जी भी पुकारते
बबलुआ के ‘‘माय’’आज दादा जी ने जोर से पुकारा
अरे बबलुआ
देखा मां दौड़ी जा रही है।
उधेड़बुन में मैं सोंचता
आखिर इस सब में
मां का नाम क्या है?
जब मां गई थी ‘‘नैहर’’
तो पहली बार नानी ने पुकारा
‘‘कहां जाय छहीं शांति’’
फिर कई ने मां को इसी नाम से पुकारा..
फिर मैं
उधेड़बुन में सोचता रहा
आखिर इस सब मेंमां का नाम क्या है?
कई सालों से मां नैहर नहीं गई है
अब मां को शांति देवी पुकारता है
तो मां टुकुर टुकुर उसका मुंह ताकती है
शायद
मेरी तरह अब
मां भी उधेड़बुन है
आखिर इस सब में
उसका का नाम क्या है?
बेचारी माँ, सबका व्यक्तित्व निखारते हुए अपना ही खो बैठी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना .
जवाब देंहटाएंyahi to khas hai, maa ka naam hi nahi hota...wo ham sab me gum ho jati hia....:)
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना| कमोबेश आज भी गांवों में हर स्त्री की यही स्थिति है|
जवाब देंहटाएंbahut achcha likhe....
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