मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

मुझे बहुत गुस्सा आता है.....


मैं बेवजह उलझ पड़ता हूं सबसे
अपने-पराये की पहचान भी नहीं है
अक्सर अपने देते रहते है यह सलाह
कहते हैं छोटी-छोटी बातों को इगनोर करो...
और मैं
‘‘मजा मारे मकईया के खेत में’’
या फिर
‘‘जरा सा जिंस ढीला करो’’
बजते
सुन भड़क जाता हूं
जब वह किसी यात्री बस पर
या फिर
दोस्त के बहन की शादी में
बैठी मां-बहनों को शर्माते हुए देखता हूं।

बगल में बैठ कोई चिलम धराये
या सिगरेट जलाए लोगों पर भी
मैं भड़क जाता हूं।

मैं तब भी भड़क जाता हूं
जब किसी बृद्धा से पेंशन निकालने में
लिया जाता है नजराना
जो होता है उनके लिए
‘‘मात्र दस रूपया...’’

दबे कुचलों की आवाज बनने
चला जाता हूं मीलों दूर
गंदी वस्ती में
जहां मुझे भी लोग उसी तरह घूरते है
जैसे मैं भी आया हूं वोट मांगने
और वर्षो से ठगे जाने वाले लोग
न उम्मीदी में ही सही
सुनाने लगते है अपना दुखड़ा
और कीबोर्ड पर खट खट कर
उनकी आवाज को बना देता हूं आग
तब भी लोग मुझे सलाह देते हैं
तोरा की काम हो?
तोरा की मिलो हो?
की फायदा?

पता नहीं
पर विसमताओं और
विसंगतियों को देख
मुझे गुस्सा बहुत आता है।

9 टिप्‍पणियां:

  1. यूँ ही धधकती रहे यह आग..असंख्य हृदयों तक प्रसार हो इसका...ईश्वर करें...

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  2. gussa bahut zaroori hai Arun ji ...banaye rakhiye !...is gusse ki pavitrata sab nahin samjheinge...

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  3. ये गुस्सा आना भी चाहिए ... और काश ये गुस्सा सभी को आने लगे तो हालात सुधर जायेंगे ...

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  4. अच्छा लिखा..आज आपके ऐसे लोगों की बिहार को बहुत जरूरत है वरना हम तो "ऊपर वाली के चक्कर में" ही अपनी शान समझते हैं. हालात बदल रहे हैं लेकिन यह क्रिया थोड़ी धीमी पड़ गयी है.

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  5. विषमताओं और विसंगतियों को सुधारने के लिए गुस्सा जरूरी है।

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  6. अब तो यह सब सामान्य लगता है कई बार लगता है कि हमीं विषम हैं यहाँ.....
    हार्दिक शुभकामनायें आपको !

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  7. पर विसमताओं और
    विसंगतियों को देख
    मुझे गुस्सा बहुत आता है।

    It is quite natural.

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