दुनिया-ए-बाज़ार में रहा अहमक की तरह।
साथी तुझे सौदागरी नहीं आती।।
कुछ मोल भाव भी हो रिश्तों में।
तुझे तक़ल्लुफ़ की बाज़ीगरी नहीं आती।।
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वही शाम, वही सुबह है।
ठहरी जिंदगी, बंजर है।।
वक्त ही न मिला की खुल के साँस ले सकूँ।
ये कैसी ग़ुरबत, ये कैसा मंज़र है।।
गैर तो गैर है उनसे शिकवा कैसा।
यहाँ तो अपनों के हाथ में खंजर है।।
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बड़े बेमुरौअत हो, संग दिल हो।
जाने क्यूँ मेरी मोहब्बत में शामिल हो।।
साथी तुझे सौदागरी नहीं आती।।
कुछ मोल भाव भी हो रिश्तों में।
तुझे तक़ल्लुफ़ की बाज़ीगरी नहीं आती।।
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वही शाम, वही सुबह है।
ठहरी जिंदगी, बंजर है।।
वक्त ही न मिला की खुल के साँस ले सकूँ।
ये कैसी ग़ुरबत, ये कैसा मंज़र है।।
गैर तो गैर है उनसे शिकवा कैसा।
यहाँ तो अपनों के हाथ में खंजर है।।
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बड़े बेमुरौअत हो, संग दिल हो।
जाने क्यूँ मेरी मोहब्बत में शामिल हो।।
बहुत खूब ... लाजवाब शेर हैं ...
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