शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

धुंआं-धुंआं


झुग्गी-झोपड़ियों से
निकलते धुंऐं को कभी
मौन होकर देखना...

उसमें कुछ तस्वीर
नजर आऐगी..
जो आपसे
बोलेगी, बतियायेगी....

पूछेगी एक सवाल
आखिर यहां भी तो रहते हैं
तुम्हारी तरह ही
हाड़-मांस के लोग

फिर क्यों रोज
इनके घरों से मैं नहीं निकलता?

फिर क्यों दोनों सांझ
इनका चुल्हा नहीं जलता.....?


12 टिप्‍पणियां:

  1. गहन और सार्थक प्रश्न ...!!
    मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति ...!!

    शुभकामनायें ।

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  2. कुछ वाजिब प्रश्न करती रचना ... छूती है दिल को ...

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