शनिवार, 10 मार्च 2012

एक रोटी और
















तन्हा बैठा, तो गूंज उठा शोर, अन्तः का।
शांति, तुफान के पुर्व की, या कि,
तुफानों में घिरे जीवन के मृत्यु का।

जो हो, पर अब
न तुम जूता पहन आने पर झगड़ती हो।
न मैं देर से चाय देने पर बिगड़ता हूं।।

न तुम एक रोटी और की जिद पकड़ती हो।
न मैं एक रोटी और मांगने को चिघड़ता हूं।।

और इस एक रोटी की भूख से
आत्म-क्षुधा रह रही है अतृप्त।
और कठपुतली बनी जिंदगी
ढुंढ रहा है विस्तृत।।

नंगा कर खड़ा कर दिया है दोनो को
हमारे स्पर्श की अस्पृश्यता ने।
ओह!
यह तो प्रेम की मृत्यु है
और
जीवन जीने की विवशता भी....

13 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम के अंत के वेदना ...गहरे अहसास के साथ !
    प्रेम के जीवन के लिए ...
    शुभकामनाएँ!

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  2. संबंधों के दरकन से उपजी पीड़ा की गहन , मार्मिक अभिव्यक्ति..

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  3. बहुत ही अनुपम भाव संयोजन लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  4. प्रेम का एक रूप ये भी होता है जिसे सुन्दर शब्द दिया है आपने..

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  5. मामला गड़बड़ लग रहा है। किंतु इस सबके लिए जीवन नहीं गंवाया जा सकता।

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  6. कल 21/03/2012 को आपके ब्‍लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    ... मुझे विश्‍वास है ...

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  7. वक़्त के साथ कितनी बातें थम जाती हैं न

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  8. मार्मिक .........प्रेम का अंत ऐसे होगा ...सोचा ना था ...दुखद

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  9. बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति है...
    सुन्दर शब्दों में पिरोई..

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