बुधवार, 27 जुलाई 2011

अब कहां वो बात ?

कितना शकून था 
जब दो-एक कमरे का घर था 
और थी एक मुठ्ठी  
अपनी खुशी  
अपना गम  
अपनों का रूठना-रिझाना..  
उसी छप्पर के नीचे  
लड़ते झगड़ते  
गीत गाती थी 
जिंदगी  
रून-झुन रून-झुन...भादो में मेघ का टपक कर
थकी नींद से जगाना,  
मेरा झुंझलाना  
टपकती हुई मेध के नीचे  
तुम्हारा कटोरा लगाना...  
तब सब कुछ था अपना सा

प्रियतम, 
अब है कहां वह बात 
मिलन करा दे,
डराती धमकाती 
अब है कहां वह रात..

इस मकान में, है बहुत कुछ 
पर अपना सब कुछ खो गया है!  
गुंजती है 
वह तो तीसरी मंजिल पर जा कर सो गया है..?

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