बुधवार, 15 दिसंबर 2010

मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता

मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।


समाज के विभ्रन्स आईने में
संवार कर अपना चेहरा,
तज कर अपना अस्तित्व
पहनना समाजिक मुखौटा,
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।

मैं नहीं प्रस्तुत कर सकता
खुद को खुली किताब की तरह,
जिसमें है कई स्याह पन्ने
और कहीं कहीं धृणा
और दम्भ से लिखी गई इबारत।
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।

मैं रोज सुबह उठकर
नहीं दे सकता बांग,
उनके बीच जो करना चाहतें हैं
मेरा जिबह।
काले लिबास मे लिपटे
समाजिक न्यायाधिशों के कठघरे में
साष्टांग लेट
मैं नहीं कर सकता जिरह।


मैं आदमी हूं
आदमी ही रहने दो भला मत बनाओ.

10 टिप्‍पणियां:

  1. भिन्न-भिन्न स्तरों पर जीते मनुष्य के स्व को तलाशती रचना।

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  2. भाई अरुण जी //
    अगर आदमी की कमजोरियां बाहर आ गई /
    तो वह आदमी कैसे रहेगा /कहलायेगा /
    जब तक आवरण है /
    हम आदमी /
    है
    बड़ा ही अच्छा लगा /
    मेरे ब्लॉग पर आप आये /
    आतिश चंद्रजी को भी शुक्रिया
    जिन्होंने आपको मेरे बारे में बताया //

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  3. आदरणीय अरुण जी
    सच को उजागर करती पोस्ट हम सब कुछ बनना चाहते हैं पर एक इंसान नहीं ....शुक्रिया

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  4. बेहतरीन रचना। बधाई। आपको भी नव वर्ष 2011 की अनेक शुभकामनाएं !

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  5. उत्तम रचना. आभार...
    नववर्ष आपके लिये शुभ व मंगलमय हो !

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  6. अच्छा है ! नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं !

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  7. सही कहा।
    सरल लगने वाली बात भी कितनी कठिन होती है।
    न तू इतना सीधा बन के खा जायें भूके
    न तू इतना कड़वा बन जो चखे वो थूके

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  8. मैं आदमी हूं
    आदमी ही रहने दो भला मत बनाओ.

    Bahut hi Sunder....

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