शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है

कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है।
तन्हाई के सफर में भी कारवां क्यूं है।

कभी तो खामोशी की जुवां को समझो साथी,
क्यों पूछते हो, यह अपनों के दरम्यां क्यूं है।

दुनियादार तुम भी नहीं हो मेरी तरह शायद,
तभी तो कहते हो कि जुल्म की इम्तहां क्यूं है।

यह नासमझी नहीं तो और क्या है,
कि जिस चमन में माली नहीं, और पूछते हो यह विरां क्यूं है।

शीशा-ऐ-दिल से दिल्लगी है उनकी फितरत,
गाफील तुम, पूछते हो संगदिल बेवफा क्यूं है।

इस काली अंधेरी रात में साथी चराग बन,
शीश-महलों को देख डोलता तेरा भी इमां क्यूं है।

कभी तो अपनी गुस्ताखियां देखों साथी,
की अब बन्दे भी यहॉ खुदा क्यूं है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

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  2. कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है।तन्हाई के सफर में भी कारवां क्यूं है।
    बहुत खूब!
    .........
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    आमंत्रित करता है.
    यह आयोजन कल रविवार, 12 दिसंबर, प्रातः 10 बजे से शुरू हो रहा है .
    आप का सहयोग हमारा उत्साह वर्धन करेगा.
    आभार

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  3. खामोशी की जुबां अगर हम समझ पाते तो ... बहुत सुन्दर

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