सोमवार, 17 जनवरी 2011

डर है की तुम डर नहीं रहे हो






नहीं नहीं
वैसे समय में
जब
सब
कर रहें हों उपक्रम
तुम्हें चुप कराने का
तुम चुप मत रहना,,

नहीं नहीं
वैसे समय में 
जबकि
सल्तनत के बादशाह
देकर लोकतंत्र की दुहाई
तेरी जुवान सिल देना चाहतें हों
तुम जोर जोर से चिल्लाना,,

नहीं नहीं
वैसे समय में
यह सोंच कर 
कि कहीं तुम भी कहलाओ
बागी
एक आवाज लगाना,,

नहीं नहीं
तुम डर मत जाना

क्योंकि
डर तो वे रहें है 
कि
तुम डर नहीं रहे हो..............

14 टिप्‍पणियां:

  1. nav jagran ka sandesh deti,kranti ka avahan karti ...bahut hi sarthak rachna.
    achchhi lagi ....bahut.

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  2. भाई अरुण जी!
    अच्छी कविता है। सबसे बड़ी बात है कि इस कविता की दृष्टि ठीक है।
    सादर

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  3. यथार्थमय सुन्दर पोस्ट
    कविता के साथ चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है.

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  4. अरुण जी कविता सशक्त है, पसंद आई।

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  5. क्योंकि
    डर तो वे रहें है
    कि
    तुम डर नहीं रहे हो..............
    ekdam samayik baat khoobsurti ke saath likh di.

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  6. सल्तनत के बादशाह
    देकर लोकतंत्र की दुहाई
    तेरी जुवान सिल देना चाहतें हों
    तुम जोर जोर से चिल्लाना,,
    बहुत प्रेरणादायी आह्वान है .....आपकी रचा बहुत सशक्त है .....बहुत बहुत आभार

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  7. नहीं नहीं
    तुम डर मत जाना

    क्योंकि
    डर तो वे रहें है
    कि
    तुम डर नहीं रहे हो..............

    जवाब नहीं इन पंक्तियों का....

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  8. सार्थक कविता ....सशक्त प्रभावी अभिव्यक्ति....

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  9. "डर तो वे रहे हैं क्योंकि तुम डर नहीं रहे हो.." बहुत ही बढ़िया.

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  10. डर तो वे रहे हैं कि तुम डर नही रहे। सही बात है। अच्छी रचना। बधाई।

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  11. अपने परिवेश में मौजूद विसंगतियों से जूझने का आह्वान करती एक प्रेरक, सार्थक और सशक्त रचना... आभार.
    आप को वसंत पंचमी की ढेरों शुभकामनाएं!
    सादर,
    डोरोथी.

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  12. यह वक्त की पुकार है इसलिए सीधे दिल में उतर जाती है.

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  13. जो डरते हैं , लोग उन्हें और डराते हैं । धमकाते हैं , उपदेश देते हैं और उनकी आवाज़ दबाने की पुरजोर कोशिश करते हैं । लेकिन वही वक़्त है जब खामोश नहीं रहना है ...

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