शाम ढलते ही याद आती है वो।
बिछड़ के भी कितना सताती है वो।।
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वो भी एक दौर था, हर शाम उनके नाम थी।
आज भी यूं शाम अपने नाम करवाती है वो।।
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चाहत को न पाने का मलाल आज भी है मुझे।
मेरी इस चाहत पे गुरूर क्यूं न कर पाती है वो।।
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वो बेवफा नहीं है, इतना तो एतवार है मुझको।
फिर सरे महफिल बेवफाई क्यूं जताती है वो।।
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बिछड़ के भी कितना सताती है वो।।
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वो भी एक दौर था, हर शाम उनके नाम थी।
आज भी यूं शाम अपने नाम करवाती है वो।।
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चाहत को न पाने का मलाल आज भी है मुझे।
मेरी इस चाहत पे गुरूर क्यूं न कर पाती है वो।।
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वो बेवफा नहीं है, इतना तो एतवार है मुझको।
फिर सरे महफिल बेवफाई क्यूं जताती है वो।।
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बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
बहुत बढ़िया
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