सोमवार, 11 मार्च 2013

फेसबुक पर दिल्लगी के कुछ बिखरे हुए टुकड़े


क्या कहूं कैसी हो तुम
बिल्कुल चांद की जैसी हो तुम....

(अभी अभी एक अतिसुंदरी की तस्वीर देख कर बेईमान मन ने शरारत की है....)

मैंने शुरूआत की और फिर जबाब/सवाल/जबाब का दौर चल निकला.


उड़ गई नींद मेरी रातों की

तेरा कैसा सवाल था साथी..



चली जाओगी बेशक मेरी ज़िन्दगी से
 मगर इस दिल से कैसे जाओगी,,,

मोहब्बत ए मरीज का दिल में रहना ही खुशनसीबी है
गौर क्या जाने दर्द, धड़कनों की सदा तुम तो सुनोगे..

वो इस चाह मेँ रहते हैँ कि हम उनको ^ उनसे माँगेँ और
हम इस गुरुर मेँ रहते हैँ कि... हम अपनी ही चीज क्यूँ माँगेँ !!!

गुरूर तो मुझको भी तेरी मोहब्बत का
खो कर भी तुझे, तेरे साथ जीये जा रहा हूं

हमने तेरे बाद न रखी किसी से महोब्बत की आस,
एक शक्स ही बहुत था जो सब कुछ सिखा गया..!!!

इक मोहब्बत ही काफी है जिन्दगी के सफर में
तुमसे फरेब क्या खाया, मुझको भी जीना आ गया..

इश्क वो खेल नहीं जो छोटे दिल वाले खेलें,
रूह तक काँप जाती है, सदमे सहते-सहते..!!!

इश्क तो रूहानी होती है, गफलत न हो
सदमो में जीना सीख जाता है रहते रहते..

सदा है मदन बाबू पहूंच ही जाएगी
अभी चली गई है तो वह लौट कर भी आएगी..


2

‘‘आज रात निंद नहीं आ रही
और कमबख्त मैं सोना भी नहीं चाहता’’

तुम जाग रहे हो मुझको अच्छा नहीं लगता
चुपके से मेरी निंदा चुरा क्यों नहीं लेते..


3

बड़े नामुराद हो, कयामत की बात करते हो

एक मैं हूं की कयामत से भी मोहब्बत कर बैठा..


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