उनकी बात क्यों करते हो
जिन्होंने
रंग-रोगन किए महलों
और
चमकते कंगूरों से
सजा लिया है अपना बाह्य...।
उनको भी क्यों सराहते हो
जिन्होंने
अनीति-अधर्म की साझेदारी से
घोषित कर दिया है
खुद को प्रजापति...।
और तुम्हारा
सीना क्यों फूल जाता है
उनका साथ पाकर
जिनकी
रावण सरीखी विद्वता
स्वर्ण महलों में रहती है
जबाब दो मुझे
तुम आदमी हो या राक्षस..
हाय राम ... ये आपने क्या पूछ दिया , सरेआम इन असुरों को बेनक़ाब कर दिया
जवाब देंहटाएंआर्शीवाद दिजिए की सवाल पूछने की ताकत बची रहे...
जवाब देंहटाएंजबाब दो मुझे
जवाब देंहटाएंतुम आदमी हो या राक्षस......poochte rahiye.....shayad jabab aa hi jaye.....
आमीन...
हटाएंकोई जवाब नहीं आएगा..............
जवाब देंहटाएंआदमी है वो .....मगर आत्मा मर चुकी है...बोलेगी कैसे?????
कभी कभी मुर्दे भी बोल उठते हैं..
हटाएंमेरा जवाब तो रश्मि प्रभा जी ने दे दिया
जवाब देंहटाएंतब आप आर्शीवाद ही दे दिजिए...
जवाब देंहटाएंसटीक प्रश्न है आपका ... इंसान की प्रवृति धीरे धीरे रावण वाली होती जा रही है और ये परिवर्तन दिखाई नहीं देता ...
जवाब देंहटाएंअरूण जी,
जवाब देंहटाएंएक लंबे अंतराल के बाद आपके पोस्ट पर आना हुआ। कविता बहुत अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
सटीक और गंभीर प्रश्न.. प्रभावशाली रचना ... !!
जवाब देंहटाएंgahan bhavon ko ukera hai aapne .aabhar
जवाब देंहटाएंLIKE THIS PAGE ON FACEBOOK AND WISH OUR INDIAN HOCKEY TEAM ALL THE BEST FOR LONDON OLYMPIC
आप सब का बहुत बहुत आभार..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब साथी जी ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिला करते .....
जवाब देंहटाएंधर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
जवाब देंहटाएंईश्वर के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म है । अधर्म के लिए कर्म करना भी अधर्म है ।
कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, तप, भक्ति, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।
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