सोमवार, 9 जून 2025

कब्र में आदमी

कब्र में आदमी

ज़िंदगी की खोई धड़कनों की तलाश
अचानक ही बैठे-बैठे मन के किसी 
चुप कोने से एक हूक उठी


कितने दिन हो गए... 
कोई कविता नहीं लिखी, 
ना रंगों से कोई चित्र रचा। 

ग़ज़ल की कोई धीमी सरगम 
कानों तक नहीं आई, 
किसी सिनेमा में खुद को खोया नहीं।


कई दिनों से बिना वजह 
कुछ गुनगुनाया नहीं, 
आईने में झांककर मुस्कुराया भी नहीं।


ना किसी जिगरी को छेड़ा हौले से, 
ना किसी उदास चेहरे को हंसाया अपने ढंग से।

किसी अच्छी किताब के पन्नों में डूबा भी नहीं, 
उसे पढ़ते-पढ़ते जम्हाई भी नहीं ली,
ऐसा भी अरसा बीत गया।

किसी उड़ती चिड़ी को या 
किसी मुस्कुराते फूल को 
कैमरे में कैद भी तो नहीं किया...

जीवन को बस ढोते रहे हैं... 
जीते नहीं..

चलते रहे हैं यूं ही, 
जैसे कोई आदमी कब्र में चल रहा हो
धीरे, चुपचाप, बिना धड़कन, बिना मक़सद.

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