गुरुवार, 16 जुलाई 2015

अपनी लाश को ढोना...



















(अपनी वेदना को शब्द दी है, बस...)

पहाड़ सी जिंदगी 
का बोझ पीड़ादायी होता है..

उससे अधिक
पीड़ादायी हो जाता है
किसी अपने का 
पहाड़ सा 
दिया हुआ दुख....

और जब
आदमी 
अपनी ही लाश को
ढोते हुए जीने लगता है,
तब
उस असाह्य
पीड़ा के प्रति भी
वह संवेदनहीन सा हो जाता है!

जाने क्यूं...?


(चित्र- गूगल  देवता से उधार लिया हुआ)

सोमवार, 6 जुलाई 2015

निराश मत हो...

शनै: शनै:
अस्ताचल की ओर
जाते सूरज को देख
बहुत आशान्वित हो जाता हूं,
जैसे 
उर्जा की एक नई किरण
समाहित हो अन्तः को
जागृत कर रही हो....
.........
जैसे 
कह रही हो,
फिर होगी सुबह,
फिर निकलेगा सूरज,
नई उर्जा,
नई आशा,
नया दिन और
नई चुनौतियों के साथ,

निराश मत हो...


(तस्वीर- मेरे गांव में डूबते सूरज की)