वह भी क्या दिन थे,
हम साथ-साथ रहते थे।
सुख-दुख सब मिलकर,
एक साथ सहते थे।
चाचा और चाची को,
बड़का बाबू और बड़की माय कहते थे।
अब वो अंकल, आंटी हो गए।
हम दो वेडरूम के फ्लैट ले,
अपनी अलग दुनिया में खो गए।
अब हमारी लाइफ फास्ट हो गई,
और हमारी समाजिकता लास्ट हो गई।
घर से ऑफिस, ऑफिस से घर, यही लाइफ है।
ऑफिस में बॉस और घर में डांटती वाईफ है।
फिर बच्चों का कैरियर बनाने में
कर्ज ले सबकुछ लगाया,
बचपन से ही उसे ठोक-पीट कर
डाक्टर या इंजिनीयर बनाया,
और इसी सब में उसने भी इंसानियत गंबाया!
और पंख लगते ही उसने भी
अपनी अलग दुनिया बसाया..
अब हम बड़े से फ्लैट
अथवा ओल्ड ऐज होम में
तन्हा बैठा सोंचते हैं
हमने क्या खोया?
हमने क्या पाया?
हम साथ-साथ रहते थे।
सुख-दुख सब मिलकर,
एक साथ सहते थे।
चाचा और चाची को,
बड़का बाबू और बड़की माय कहते थे।
अब वो अंकल, आंटी हो गए।
हम दो वेडरूम के फ्लैट ले,
अपनी अलग दुनिया में खो गए।
अब हमारी लाइफ फास्ट हो गई,
और हमारी समाजिकता लास्ट हो गई।
घर से ऑफिस, ऑफिस से घर, यही लाइफ है।
ऑफिस में बॉस और घर में डांटती वाईफ है।
फिर बच्चों का कैरियर बनाने में
कर्ज ले सबकुछ लगाया,
बचपन से ही उसे ठोक-पीट कर
डाक्टर या इंजिनीयर बनाया,
और इसी सब में उसने भी इंसानियत गंबाया!
और पंख लगते ही उसने भी
अपनी अलग दुनिया बसाया..
अब हम बड़े से फ्लैट
अथवा ओल्ड ऐज होम में
तन्हा बैठा सोंचते हैं
हमने क्या खोया?
हमने क्या पाया?